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कैसे समझेंगे हम स्वतंत्रता का महत्व

Location: Bhopal                                                 👤Posted By: PDD                                                                         Views: 18675

Bhopal: हमारे बच्चों को फिल्मी कलाकारों और क्रिकेट के देश विदेश के सभी सितारों के नाम तो याद हैं लेकिन भारत की आजादी के नायकों के नाम या फिर हमारे अमर शहीदों की कहानी क्यों नहीं याद?



क्या हमने उन्हें बताया है कि अगस्त का महीना तो 1947 से पहले भी आता था लेकिन 15 अगस्त 1947 की सुबह का सूरज कुछ ज्यादा ही सुर्ख था?



स्वतंत्रता केवल एक शब्द नहीं है एक भाव है, एक एहसास है जो संतुष्टि और पूर्णता की भावना से ओतप्रोत होता है। अपने वर्तमान और अपने अतीत को देखते हुए हमारा दायित्व है कि अपनी आने वाली पीढ़ी को हम इस आज़ादी का महत्व बताएँ और आज से 70 साल पहले हमने इसे किस कीमत पर हासिल किया था, इस बात से उन्हें अवगत कराएँ। उन्हें इस बात का एहसास कराएँ कि 'स्वतंत्रता' शब्द के साथ जुड़ा हर भाव केवल मनुष्य ही नहीं जानवरों एवं पेड़ पौधों तक में महसूस किया जाता है।



इसका महत्व तब पता चलता है जब आसमान में बेफिक्री से उड़ता एक परिंदा अपने ही किसी साथी को पिंजरे में कैद देखता है इसकी कीमत तब समझ में आती है जब जंगल में इस डाल से उस डाल पर अपनी ही मस्ती में उछलता बंदर अपने किसी साथी को चिड़ियाघर के पिंजरे में कैद लोगों का मन बहलाता देखता है।



इसकी चाहत को महसूस तब किया जाता है जब खुद को जंगल का राजा समझने वाला शेर अपने ही किसी साथी को किसी सर्कस में बच्चों को करतब दिखाता हुआ देखता है इसके आनंद की कल्पना तब होती है जब मिट्टी में अपनी जड़े फैलाकर अपनी विशाल टहनियों और पत्तों के साथ हवा के साथ इठलाते किसी पेड़ को गमले की मिट्टी में खुद को किसी तरह समेटे अपने आस्तित्व के लिए संघर्ष करता अपना ही एक साथी दिखाई दे जाता है पर हमारे बच्चे जिनको आज हम आधुनिकता की चादर ओड़े ऐशोआराम के हर साधन के साथ बहुत ही नजाकत और लाड प्यार से पाल रहे हैं वे इसका महत्व कैसे समझेंगे?



क्या 15 अगस्त के दिन टीवी और अखबारों में छपने वाले बड़े बड़े ब्रांडस पर स्वतंत्रता दिवस पर मिलने वाली विशेष छूट और आँनलाइन शाँपिग पर इस दिन मिलने वाली बड़ी बड़ी डील्स से?



या फिर साल में सिर्फ दो दिन रेडियो पर बजने वाले देशभक्ति के कुछ गानों से?

हमारे बच्चों को फिल्मी कलाकारों और क्रिकेट के देश विदेश के सभी सितारों के नाम तो याद हैं लेकिन भारत की आजादी के नायकों के नाम या फिर हमारे अमर शहीदों की कहानी क्यों नहीं याद?



क्या हमने उन्हें बताया है कि अगस्त का महीना तो 1947 से पहले भी आता था लेकिन 15 अगस्त 1947 की सुबह का सूरज कुछ ज्यादा ही सुर्ख था?



क्या हमने उन्हें बताया कि उस दिन हवाओं में कुछ अलग ही ताजगी थी?



कि हर आँख उस दिन समझ नहीं पा रही थी कि वो नम क्यों हैं, अपने बिछड़े साथियों की याद में या फिर अपने तिरंगे की शान में?

क्या हमने उन्हें उन यादों, उन स्मृतियों की तस्वीर से रूबरु कराया है जो बहुत कुछ खोने के बाद आजादी के स्वप्न को हासिल करने की हैं?



बार बार पराजित होकर भी बसन्ती चोले में रंगे अपने वीरों के पराक्रम की है, उन जवानियों की है जो देश पर कुर्बान होने के लिए इस कदर कतार लगा कर खड़ी थीं कि आखिर अंग्रेजों को हमारा देश छोड़कर जाना ही पड़ा?



तो उन जयचंदों की भी जिनकी वजह से कई बार हमारे वीरों का लहू बेवजह इस देश की मिट्टी में मिलाया गया ?



बादल भी बरसने के लिए शायद इसी महीने का साल भर इंतजार इसीलिए करते हैं ताकि आसमान सावन के बहाने उनकी याद में उस माँ की गोद को कुछ ठंडक पहुंचा दे जिसकी रक्षा के लिए उसके बच्चे उसी में समा गए लेकिन जाते जाते देश को नया सूर्योदय दे गए।



ऐसा लगता है कि प्रकृति भी इस महीने उस माँ के कलेजे को शीतल करने का प्रयास करती है जो अपनी छाती पर जली लाखों वीर सपूतों की चिताओं की याद में आज भी धधक उठती है।



लेकिन तब से लेकर आज तक बहुत कुछ बदल चुका है। जो युवा पीढ़ी उस समय देश की आजादी के लिए कुर्बान तक होने के लिए तैयार थी वो युवा पीढ़ी आज हमारी शिक्षा पद्धति से उपजी बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से हताश है।



योग्यता होते हुए भी अवसरों की तलाश में है।

भारत आजाद हुआ अंग्रेजों के शासन से लेकिन गरीबी, भ्रष्टाचार और पश्चिमी सभ्यता के प्रति अपने आकर्षण में हम आज भी कैद हैं। देश के आर्थिक विकास की दर हम जीडीपी आदि आँकड़ों से मापते हैं खुशहाली से नहीं। शायद इसीलिए देश तो विकसित हो रहा है लेकिन देश के आम आदमी को अपने जीवन स्तर के विकास का आज भी इंतजार है।



हमारा देश भले विश्व में अनाज का निर्यात कर रहा हो लेकिन हमारा किसान आज भी लाचार है। अपनी ही चुनी हुई सरकार के होते हुए वो पुलिस की गोलियां खाने के लिए विवश है। हम भले ही खुद को आज इक्कीसवीं सदी का भारत कहते हों लेकिन एक रिपोर्ट के अनुसार आज भी आबादी के मात्र 18% हिस्से को ही 21 वीं सदी की मूलभूत सुविधाएं जैसे स्वच्छ पानी भोजन हासिल हैं।



हम भले ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं लेकिन उसकी आत्मा कहीं खो गई है। नेता राजनीति को देश अथवा समाज सेवा का माध्यम नहीं स्वसेवा का अवसर मानते हैं, जो नौकरशाही सरकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाने के लिए बनाई गई थी वो भ्रष्टाचार में डूबी हुई है प्रधानमंत्री ने भले ही गाड़ियों से लाल बत्ती उतारवा दी हो लेकिन दिमाग से वीआईपी होने का घमंड नहीं उतार पाए जिस आजादी के साथ हमने सोचा था कि देश के हर नागरिक को समान अवसर मिलेंगे और भले ही संविधान में इस देश का हर नागरिक समान है लेकिन व्यवहार में अवसर चेहरों अथवा रिश्वत के मोहताज हैं भले ही हम स्वयं को एक सभ्य समाज कहते हैं लेकिन प्रतिभा और योग्यता आज भी पैसे की ताकत के आगे हार जाती है हमारे नेता भी विकास की राजनीति से अधिक स्वार्थ की राजनीति करते हैं। और हम खुद भी आजादी का अर्थ क्या समझते हैं !



यही कि चूँकि हम आजाद हैं तो बिना लाइसेंस के वाहन चलाना चाहते हैं, ट्रेन में बैठने के लिए हमें टिकट की आवश्यकता ही नहीं है

हम पान और गुटका खाकर कहीं भी थूक सकते हैं, कचरा कहीं भी फेंक सकते हैं, ट्रैफिक नियम का पालन करने में समय बरबाद करना हमारी फितरत में नहीं है क्योंकि यह कीमती समय हमें सरकार और देश को कोसने में लगाना है अभिव्यक्ति की आजादी और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तर्कहीन बातें करना हमारा संवैधानिक अधिकार है हम अपने अधिकारों के प्रति जितने जागरूक हैं, देश के लिए अपने फर्ज और दायित्वों के प्रति उतने ही अनजान और हमें कोई कहने वाला भी नहीं है क्योंकि, आखिर हम आजाद जो हैं।



काश कि हम सभी इस स्वतंत्रता का मूल्य समझ पाते, इस देश की आजादी के दी गई कुर्बानियों का मान रख पाते और इस देश को खुद से पहले रखना सीख जाते।



- डॉ नीलम महेंद्र

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