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स्वास्थ्य नीति से जगी नयी उम्मीद

Location: Bhopal                                                 👤Posted By: DD                                                                         Views: 18541

Bhopal: उगते हुए सूर्य और अस्त होते हुए सूर्य के बीच जो है, वह जीवन है। कोई कहता है जन्म और मृत्यु के बीच जो है, वह जीवन है। भूत और भविष्य के बीच जो है, वह जीवन है। आज का भौतिक दिमाग कहता है कि घर के बाहर और घर के अन्दर जो है, बस वही जीवन है। अब लोग व्यवस्था को जीवन मानते हैं। लेकिन आज हमारा यह जीवन स्वास्थ्य सेवाओं की विसंगतियों एवं अराजकता के कारण भयावह स्थितियों में हैं, विषम और विषभरा बन गया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे. पी. नड्डा ने गुरुवार को संसद में जो नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति की चर्चा की हैं, उससे इन निराशाभरी स्थितियों में आशा की किरण जगी है। उन्होंने जीवन को उन्नत बनाने, मरीजों के हितों, अस्पतालों की जवाबदेही तय करने और मरीजों की शिकायतों पर गौर करने के लिए पंचाट के गठन की बात भी कही। स्पष्टतः उनकी बातें प्रधानमंत्री के नया भारत निर्मित करने की दिशा में स्वास्थ्य जैसी मूलभूत अपेक्षाओं पर अब तक की निराशाजनक स्थितियों में उजाला बनने का सबब बनकर प्रस्तुत हो रही है। नया भारत का मूल आधार स्वास्थ्य एवं शिक्षा ही हो सकता है, इन स्थितियों के अभाव में मानों जीवन ठहर गया है। बीमार मनुष्य मानो अपने को ढो रहा है। बीमार आदमी और बीमार मानसिकता उन्नत राष्ट्र की सबसे बड़ी बाधा है।



भारत में स्वतंत्रता के बाद से सरकारी नीतियों में स्वास्थ्य एवं शिक्षा को अपेक्षित महत्व नहीं मिला। नतीजतन, इन दोनों मोर्चों पर देश पिछड़ी अवस्था में है। सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था इतनी लचर है कि इलाज के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भरता बढ़ती चली गई है। इसकी वजह से एक तो स्वास्थ्य सेवाएं गरीबों से दूर हुई हैं, दूसरी तरफ उपचार संबंधी कई विकृतियां भी उभरी हैं। मसलन, निजी अस्पतालों में मरीजों की गैरजरूरी जांच तथा अनावश्यक दवाएं देने की शिकायतें बढ़ी हैं। ऐसे में सरकारी अस्पतालों का तंत्र फिर से खड़ा हो, तो उससे बेहतर बात कोई नहीं होगी।



आबादी के हिसाब से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश भारत में स्वास्थ्य सेवाएं भयावह रूप से विसंगति एवं विषमता से भरी हैं और यह लगभग अराजकता की स्थिति में पहुंच चुकी है। भारत उन देशों में अग्रणी है जिन्होंने अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य का तेजी से निजीकरण किया है और सेहत पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों की सूची में बहुत ऊपर है। दूसरी तरफ विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए लेकिन भारत इस अनुपात को हासिल करने में बहुत पीछे है। देश भर में चैदह लाख लाख डॉक्टरों की कमी है और प्रतिवर्ष लगभग 5500 डॉक्टर ही तैयार हो पाते हैं। विशेषज्ञ डॉक्टरों के मामले में तो स्थिति और भी बदतर है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु रोग जैसे चिकित्सा के बुनियादी क्षेत्रों में 50 फीसद डॉक्टरों की कमी है। ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसद तक पहुंच जाता है। यानी कुल मिलाकर हमारा देश बुनियादी क्षेत्रों में भी डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा है। यह स्थिति एक चेतावनी की तरह है।



इन चुनौतीपूर्ण स्थितियों के बीच स्वास्थ्य मंत्री द्वारा प्रस्तुत नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति एवं उनका संकल्प स्वागतयोग्य है। नई नीति में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का दायरा बढ़ाने पर जोर है। अभी इन केंद्रों में रोग प्रतिरक्षण, प्रसव पूर्व निगरानी और कुछ ही अन्य रोगों की जांच होती है। लेकिन नई नीति के तहत इनमें गैर-संक्रामक रोगों की जांच भी होगी। साथ ही नई नीति में जिला अस्पतालों के पुनरुद्धार पर विशेष जोर है। कहा गया है कि स्वास्थ्य संबंधी सरकारी कार्यक्रमों को अमली जामा पहनाने की रूपरेखा तय की जाएगी। स्पष्टतः यह महत्वपूर्ण बदलाव है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण ने स्थिति को भयावह बनाया है, उसको व्यवसाय का रूप देने से आम आदमी को उन्नत स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पा रही है। दुर्भाग्य से भारत के नीति-निर्माताओं ने स्वास्थ्य सेवाओं को इन्हें व्यवसायियों के हवाले कर दिया है। हमारे देश में आजादी के बाद के दौर में निजी अस्पतालों की संख्या दस गुणा हो गयी है। सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं बदहाल हैं या अक्षम बना दी गई हैं, इसीलिए आज ग्रामीण इलाकों में कम से कम 58 फीसद और शहरी इलाकों में 68 फीसद भारतीय निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं पर निर्भर हैं। आंकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाओं पर बढ़ते खर्च की वजह से हर साल 3.9 करोड़ लोग वापस गरीबी में पहुंच जाते हैं। इसके साथ-साथ पूर्व सरकारों की मानसिकता एवं नीतियों ने प्रतिभाशाली डाक्टरों को पलायन के लिये विवश किया गया और प्रोत्साहन योजनाओं के अभाव में इस क्षेत्र में उदासीनता एवं उपेक्षा का माहौल बना है।



बहरहाल, सरकार की मंशा एवं मानसिकता में बदलाव अच्छे संकेत दे रहे हैं। लेकिन प्रभावी नीतियां सिर्फ इरादे को उजागर करती हैं। असली चुनौती उनके क्रियान्वयन की होती है। सरकार ने नीतियों के साथ-साथ काम करने की, स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव की ठानी है, इसी का परिणाम है कि हाल में सरकार ने हृदय धमनियों को खोलने के लिए लगाए जाने वाले स्टेंट की कीमत घटाने का आदेश दिया था। मगर उसके बाद मुनाफाखोरों ने बाजार में इसकी सप्लाई घटा दी। जाहिर है, इस मामले में सरकार का मकसद तभी पूरा होगा, जब ऐसे बदनीयत तत्वों पर कड़ी कार्रवाई हो। कुछ महत्वपूर्ण एवं जीवनरक्षक दवाओं के आसमान छूती कीमतों पर भी सरकार ने शिकंजा कसना शुरु किया है। इसके साथ-साथ स्वास्थ्य नीति के उद्देश्यों को पाना तभी संभव होगा, जब केंद्र और राज्य सरकारें अपना स्वास्थ्य बजट बढ़ाएं। स्वास्थ्य राज्य-सूची का विषय है। ऐसे में नई नीति का सफल होना राज्य सरकारों के उत्साह और उनकी गंभीरता पर निर्भर है। योजना आयोग के भंग होने, केंद्र प्रायोजित योजनाओं में कटौती और विकास मद के अधिक हिस्से का राज्यों को हस्तांरण होने की नई व्यवस्था अस्तित्व में आने के बाद स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में राज्यों की भूमिका और अहम हो गई है।



भूमंडलीकरण के बाद विदेश जाकर पढ़ने वाले भारतीयों की तादाद भी बढ़ी है, चीन के बाद भारत से ही सबसे ज्यादा लोग पढ़ने के लिए विदेश जाते हैं। एसोचैम के अनुसार हर साल करीब चार लाख से ज्यादा भारतीय विदेशों में पढ़ाई के लिए जा रहे हैं। उनका मकसद केवल विदेशों से डिग्री लेना ही नहीं बल्कि डिग्री मिलने के बाद उनकी प्राथमिकता दुनिया के किसी भी हिस्से में ज्यादा पैकेज और चमकीले करिअॅर की होती है। भारत दुनिया के प्रमुख देशों को सबसे अधिक डॉक्टरों की आपूर्ति करता है। इंटरनेशनल माइग्रेशन आउटलुक (2015) के अनुसार विदेशों में कार्यरत भारतीय डॉक्टरों की संख्या साल 2000 में 56,000 थी जो 2010 में 55 प्रतिशत बढ़कर 86,680 हो गई। इनमें से 60 प्रतिशत भारतीय डॉक्टर अकेले अमेरिका में ही कार्यरत हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय विदेशों में तैयार होे रहे या अपनी सेवाएं दे रहे डाक्टरों को देश में लाने की पुख्ता व्यवस्था पर ध्यान केन्द्रित करें।



एक अनुमान के मुताबिक देश में इस समय 412 मेडिकल कॉलेज हैं। इनमें से 45 प्रतिशत सरकारी क्षेत्र में और 55 प्रतिशत निजी क्षेत्र में हैं। हमारे देश के कुल 640 जिलों में से मात्र 193 जिलों में ही मेडिकल कॉलेज हैं और शेष 447 जिलों में चिकित्सा अध्ययन की कोई व्यवस्था ही नहीं है। नई सरकारी नीतियों में सरकारी कालेजों को स्थापित करना एवं उनमें डॉक्टर बनने की स्थितियों को कम खर्चीला एवं सरल बनाना चाहिए। केंद्र सरकार अपने बजट में स्वास्थ्य सेवाओं को विस्तार, उन्नत तकनीक एवं प्रभावी चिकित्सा सेवाओं हेतु प्रावधान करें। यह साफ है कि स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार करने के लिए सरकारों को न सिर्फ नीति-निर्माण के स्तर पर बनने वाले योजनाओं में बदलाव करने होंगे बल्कि अपनी प्राथमिकताओं पर भी विचार करना होगा। स्वास्थ्य क्षेत्र को एक नयी सुबह देकर ही हम विकसित भारत का सपना साकार कर सकते हैं।





- ललित गर्ग

नई दिल्ली

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