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हरामख़ोर देखना हो तो....

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Place: Mumbai                                                👤By: DD                                                                Views: 18992

इस फ़िल्म के शुरू होने से पहले ही एक संदेश आता है कि फ़िल्म स्कूल जाने वाली उन बच्चियों और बच्चों के लिए बनी है जो अपने शिक्षकों या गार्जियन के द्वारा प्रताड़ित होते हैं.



एक बेहद गंभीर और सच्चे विषय पर बनी इस फ़िल्म में माद्दा है कि यह आपको घृणा महसूस करवा सकती है और यही इस फ़िल्म की ताक़त है.

लेकिन इस फ़िल्म की कमी यह है की फ़िल्म एक प्रायोगिक फ़िल्म की तरह ही बनाई गई है और 70 एम एम के पर्दे के नियमों का पालन नहीं करती.

फ़िल्म को एक अर्बन लुक देने के लिए हैंड हेल्ड कैमरा (हाथों में पकड़े कैमरे) के हिलते शॉट, कलाकारों की बीच में गायब होती आवाज़ दर्शकों को परेशान कर सकती है.



दरअसल यह फ़िल्म, फ़ेस्टिवल में दिखाई जाने वाली लघु फ़िल्मों की तरह है जिनका तकनीकी पक्ष भले ही मज़बूत नहीं होता लेकिन वो विषय की गंभीरता रखती हैं.



निर्देशक श्लोक ने इस फ़िल्म में एक ऐसा विषय उठाया है जो भारत और ख़ासकर उत्तर भारत में काफ़ी व्यापक है.



श्याम (नवाज़) एक ट्यूशन टीचर हैं और अपनी नाबालिग़ छात्रा संध्या (श्वेता त्रिपाठी) के साथ नाजायज़ संबंध बनाते है और फिर उसका गर्भपात करवाने के लिए भी उसे लेकर जाते हैं.



गुरू शिष्या के बीच प्रेम कहानियां दिखाई गई हैं लेकिन उन कहानियों में प्रेम दो बालिग लोगों के बीच होता है और अक्सर वो काल्पनिक कहानियां होती हैं लेकिन 'हरामखोर' उत्तर भारत में मौजूद वीभत्स मानसिकता के सामान्य लोगों की कहानी है.



निर्देशक श्लोक शर्मा बताते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में ट्यूशन पढ़ाने वाले टीचरों द्वारा घर की लड़की को भगा ले जाने या उससे शारीरिक संबंध बना लेने के कई केस पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हैं और ऐसे ही अनगिनत केसों पर यह कहानी आधारित है.



छोटे इलाकों में मौजूद बच्चों के साथ क्या क्या समस्याएं आती हैं, कैसे उनकी मन में सेक्स, शादी, प्रेम आदि को लेकर ग़लत धारणाएं बन जाती हैं, यह फ़िल्म इसका अच्छा चित्रण करती है.



फ़िल्म में नवाज़ को छोड़कर सभी कलाकारों का अभिनय सामान्य या उससे भी ख़राब है लेकिन इसे आप निर्देशन की कमी कह सकते हैं, लेकिन नवाज़ अपने अभिनय से हर सीन में कुछ न कुछ जोड़ देते हैं.



आखिरी बात, इस फ़िल्म की कास्टिंग में आपको एक अजीब चीज़ देखने को मिलेगी और वो यह कि फ़िल्म 'मसान' में लीड रोल करने वाली श्वेता त्रिपाठी की पहली फ़िल्म होने का दावा करती है.



यह दावा बिल्कुल सही है और यह फ़िल्म श्वेता की पहली फ़िल्म ही है, लेकिन 2015 में तैयार हो चुकी इस फ़िल्म को रिलीज़ होते होते इतना समय लग गया कि नवाज़ बहुत बड़े कलाकार बन गए और श्वेता त्रिपाठी भी बड़ी हो गई.



16 दिन में शूट हुई यह फ़िल्म आपको तब बेहद पसंद आएगी अगर आप कुछ अलग सिनेमा देखना पसंद करते होंगे, लेकिन अगर आप बॉलिवुड मसाला मूवी देखने जा रहे हैं तो यह फ़िल्म आपके लिए नहीं है.







बीबीसी

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