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रंगकर्म सिर्फ़ माध्यम भर नहीं मानवता का पूर्ण दर्शन हैं ! ? मंजुल भारद्वाज

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Place: Bhopal                                                👤By: DD                                                                Views: 3184


आज विश्व मशीनीकरण,वस्तुकरण और तकनीकी बाज़ारवाद के विध्वसंक दौर से गुजर रहा है. मनुष्य की प्राकृतिक सहज प्रवृति नष्ट होकर प्लास्टिक बन गई है. मुनाफाखोरी,महासत्ताओं के वर्चस्ववाद में विचार-विकार के द्वंद्व में उलझे विश्व में मनुष्यता का खतरा चरम पर है . डिजिटल तानाशाही के टारगेट,ट्रोल और टेराराइज युग में मानव संवेदनाओं को भोथरा बना दिया गया है. मनुष्यता को बचाने के लिए सिलिकॉन चिप लगी मानवी देहों में प्राकृतिक सहज भाव को जगाना अनिवार्य है. मानवीय संवेदनाओं को महसूसने और अभिव्यक्त करने का जन स्त्रोत है रंगकर्म!
पर आज रंगकर्म को सिर्फ़ माध्यम भर समझा जाता है मानवता के उन्मुक्त पूर्ण दर्शन के रूप में नहीं. यही कारण है आज दुनिया में रंगकर्म मुखर मानवता का पक्षधर स्वर नहीं सिर्फ़ नुमाइश भर रह गया है.
रंगकर्म माध्यम है यह सोचने या मानने वाले अधूरे हैं वो रंगकर्म को किसी शोध विषय की तरह पढ़ते हैं या किसी एजेंडा की तरह इस्तेमाल करते हैं पर वो रंगकर्म को ना समझते हैं ना ही रंगकर्म को जीते हैं.
ख़ासकर 'रंगकर्म मानवता का दर्शन' जानने वाले राजनेता या मुनाफ़ाखोर पूंजीपति जो सिर्फ़ इस माध्यम की ताक़त का ही दोहन करते हैं इसे दर्शन के रूप में स्वीकारते नहीं हैं या षड्यंत्र वश इसे 'गाने-बजाने' या आज की तुच्छ शब्दावली में 'मनोरंजन' तक ही देखना या दिखाना चाहते हैं.
रंगकर्म का कला पक्ष ?सौन्दर्य? का अद्भुत रूप है. यह सौन्दर्य पक्ष चेतना से सम्पन्न ना हो तो भोग के रसातल में गर्क हो जाता है और रंगकर्म सत्ता के गलियारों में जयकारा लगाने का या पूंजीपतियों के ?रंग महलों? में सजावट की शोभा भर रह जाता है.
दरअसल रंग यानी विचार और कर्म यानी क्रिया का मेल है. विचार दृष्टि और दर्शन से जन्मता और पनपता है,जबकि कर्म कौशल से निखरता है. नाचने,गाने या अभिनय,निर्देशन आदि कौशल साधा जा सकता है जैसे सरकारी रंगप्रशिक्षण संस्थान करते हैं पर दृष्टि को साधना मुश्किल होता है. इसलिए कर्म यानी बिना दृष्टि वाला कर्म 'रंग ? नुमाइश' होता है रंगकर्म नहीं. आज देश दुनिया में रंगकर्म के नाम पर 'रंग-नुमाइश' का डंका बोलता है जैसे सत्ता पर बैठा झूठा व्यक्ति सत्मेव जयते बोलता है.
रंगकर्म जड़ता के खिलाफ़ चेतना का विद्रोह है. जड़ यानी व्यवस्था! व्यवस्था चाहे वो राजनैतिक हो,आर्थिक हो,सामाजिक या सांस्कृतिक! रंगकर्म की इस विद्रोह 'प्रकृति' को सत्ता और व्यवस्था जानती है इसलिए उसके 'नुमाइश' रूप को बढ़ावा देकर उसके विचार को कुंद कर दिया जाता है. उसके लिए रंगकर्मियों को दरबारी बनाया जाता है ख़रीदकर और जो रंगकर्मी अपने 'रंग' को नहीं बेचता है उसे मार दिया जाता है. पर विचार कभी मरता नहीं है हाँ शरीर मर जाता है.
बहुत सारे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जीवन जीने के हिमायती और पक्षधर हैं. होना भी चाहिए क्योंकि प्रकृति की हर क्रिया वैज्ञानिक है. पर विज्ञान के सूत्रों का उपयोग कर कोई सत्ता अणु-बम से 'नागासाकी ?हिरोशिमा' में मानवता को भस्म कर दे तो? क्या आप वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जीवन जीने के हिमायती नहीं रहेंगे? इसी तरह 'रंग नुमाइश' को आप रंगकर्म नहीं कह सकते. रंग नुमाइश कोई भी कर सकता है और विकारी ज्यादा बेहतर करते हैं.
आपको समझने की जरूरत है 'रंगकर्म' पूर्णरूप से मानवीय कला है. एक कलाकार और एक दर्शक के मेल से जन्मती है. किसी भी तरह की तकनीक इसको मदद कर सकती है पर 'तकनीक' अपने आप में रंगकर्म नहीं है.
हर मनुष्य में दो महत्वपूर्ण बिंदु होते हैं एक आत्महीनता और दूसरा आत्मबल.आत्महीनता से वर्चस्ववाद,एकाधिकार वाद, तानाशाही जन्मती है जो दुनिया में मानवता को मिटाती है. आत्मबल से विचार जन्मते हैं जो दुनिया की विविधता,समग्रता,मानवता,सर्व समावेशी, न्याय और समता को स्वीकारते हैं,उसका निर्माण करते हैं. विकार और विचार के संघर्ष में जब विचार विकार को मिटा मानवीय अहसास से जी उठता है उसी बोध को 'कला' कहते हैं . मानवीयता का दर्शन है रंगकर्म बिना दर्शन के सिर्फ माध्यम के रूप में वो अधूरा है या सिर्फ़ नुमाइश भर है.
आज विश्व के तमाम रंगकर्मियों को यह समझने की जरूरत है की सत्ता व्यवस्था का निर्माण कर सकती है पर मनुष्य को मनुष्य नहीं बना सकती. मनुष्य को मनुष्य बनाती है 'कला'. सभी कलाओं को जन्म देता है 'रंगकर्म'! रंगकर्म में सभी कलाएं समाहित हैं क्योंकि रंगकर्म व्यक्तिगत होते हुए भी यूनिवर्सल है. रंगकर्म सिर्फ़ माध्यम भर नहीं मानवता का पूर्ण दर्शन हैं!

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