भोपाल: 14 नवंबर 2024। बिरसा मुंडा एक ऐसे महान आदिवासी नेता और स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने भारत के इतिहास में अपने साहस और संघर्ष से अमिट छाप छोड़ी। अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आदिवासी समाज को एकजुट करने वाले बिरसा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को झारखंड के छोटा नागपुर क्षेत्र के उलिहातु गांव में हुआ था। बिरसा का जीवन संघर्ष, त्याग, और अदम्य साहस का प्रतीक है, जिन्होंने न केवल अंग्रेजी शासन के खिलाफ आवाज बुलंद की बल्कि आदिवासी समाज को सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए प्रेरित किया।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
बिरसा का परिवार अत्यंत साधारण और गरीब था, जो जीविका के लिए खेती और पशुपालन पर निर्भर था। प्रारंभ में बिरसा ने मिशनरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की, जहां उन्हें ईसाई धर्म अपनाने के लिए भी प्रेरित किया गया। किंतु कुछ समय बाद उन्होंने अपनी पहचान और संस्कृति को महत्व देते हुए मिशनरी शिक्षा से दूरी बना ली। उन्होंने महसूस किया कि अंग्रेजी शासन और ईसाई मिशनरियों का आदिवासी समाज पर प्रभाव उनकी संस्कृति और परंपराओं के लिए खतरा बन रहा है।
आदिवासी समाज के उत्थान का संकल्प
बिरसा मुंडा ने 19वीं शताब्दी के अंत में अपने जीवन का उद्देश्य आदिवासी समाज के उत्थान और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देना बना लिया। उन्होंने आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार, शोषण और भूमि हड़प नीति के खिलाफ संघर्ष छेड़ा। उन्होंने "अबुआ दिशोम रे अबुआ राज" यानी "हमारा देश, हमारा शासन" का नारा दिया, जो आदिवासी समाज के दिलों में आज भी गूंजता है। यह नारा स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की भावना को प्रदर्शित करता है, जिसने आदिवासी समाज में नई ऊर्जा और साहस का संचार किया।
धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन
बिरसा ने धर्म और संस्कृति के महत्व को भी समझा और उन्होंने आदिवासियों को उनकी परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं का पालन करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने एक धार्मिक आंदोलन की शुरुआत की, जिसे 'बिरसाइट' आंदोलन कहा गया। इस आंदोलन का उद्देश्य आदिवासियों को ईसाई मिशनरियों के प्रभाव से दूर रखना और अपनी पारंपरिक मान्यताओं में विश्वास बनाए रखना था। बिरसा ने ईसाई धर्म के प्रलोभनों से आदिवासियों को सावधान किया और उन्हें अपने संस्कृति के मूल्यों पर गर्व करने के लिए प्रोत्साहित किया।
अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष
बिरसा मुंडा का संघर्ष सिर्फ सांस्कृतिक और धार्मिक ही नहीं था; उन्होंने अंग्रेजों की भूमि नीति और वनाधिकारों के खिलाफ सीधी लड़ाई भी लड़ी। उन्होंने आदिवासियों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया और उन्हें एकजुट किया। उनके नेतृत्व में आदिवासी समुदाय ने कई बार अंग्रेजी सरकार को चुनौती दी। ब्रिटिश शासन ने आदिवासियों की जमीन छीन कर जमींदारों और साहूकारों को सौंप दी थी, जिससे आदिवासी अपने ही भूमि पर पराए बन गए थे। बिरसा ने इस अन्याय के खिलाफ विद्रोह किया और अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण न करने का संकल्प लिया।
शहादत और विरासत
1900 में, मात्र 25 वर्ष की आयु में, बिरसा मुंडा ने जेल में अपने प्राण त्याग दिए। उनकी शहादत ने आदिवासी समाज को एकजुट किया और उनके संघर्ष को नई दिशा दी। उनकी शहादत के बाद भी उनका आंदोलन थमा नहीं; बल्कि, उन्होंने आदिवासी समाज को जो आत्मसम्मान और स्वतंत्रता का संदेश दिया, वह पीढ़ियों तक चलता रहा। आज बिरसा मुंडा आदिवासी विद्रोह का प्रतीक हैं, और उनका नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमर है। उनकी बहादुरी और साहस ने आने वाली पीढ़ियों को अन्याय और शोषण के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी।
बिरसा मुंडा की जयंती: उनके योगदान को याद करने का दिन
भारत सरकार ने बिरसा मुंडा की जयंती, 15 नवंबर को 'जनजातीय गौरव दिवस' के रूप में मान्यता दी है। यह दिन हमें बिरसा के अद्वितीय योगदान को याद करने और उनके आदर्शों को अपनाने का संकल्प लेने का अवसर देता है। उनकी जयंती पर हम उनके संघर्ष और त्याग को नमन करते हैं और यह याद करते हैं कि स्वतंत्रता और न्याय के लिए हर संघर्ष को पूरा करने में कितनी दृढ़ता और साहस की आवश्यकता होती है।
बिरसा मुंडा का जीवन हमें सिखाता है कि अपने हक और अधिकारों के लिए खड़ा होना कितना महत्वपूर्ण है। उनके संघर्ष, साहस और बलिदान को हर भारतीय को याद रखना चाहिए। उनका आदर्श और नारा "अबुआ दिशोम रे अबुआ राज" हमेशा हमें प्रेरित करता रहेगा कि अपनी माटी और संस्कृति के प्रति प्रेम और सम्मान का भाव बनाए रखें। आइए बिरसा मुंडा की जयंती पर उनके योगदान को श्रद्धांजलि दें और उनके आदर्शों पर चलने का संकल्प लें।
बिरसा मुंडा: आदिवासी विद्रोह का प्रतीक और स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा
Location:
भोपाल
👤Posted By: prativad
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