के. विक्रम राव Twitter ID: @Kvikramrao
लंदन में कल (30 नवंबर 2022) हुए दो वारदातों से यह साफ हो गया कि अभी भी अपने उपनिवेशों से आकर बसे अश्वेतों के प्रति "संसदीय लोकतंत्र की मां" की डींग हांकने वाले ब्रिटेन मे तीव्र नस्ल भेद बना हुआ है। संयोग से आज ही 1955 में अमेरिका के दक्षिणी राज्य में एक अफ्रीकी मूल को युवती रोजा पार्क्स को जबरन बस से उतार देने पर राष्ट्रव्यापी संघर्ष छिड़ा था। अमरीकी पादरी मार्टिन लूथर किंग ने इसका नेतृत्व करते विश्वख्याति पाई थी। वे श्वेतों द्वारा हत्या के शिकार भी हुए थे। नोबेल पुरस्कार से नवाजे गए थे। ठीक ऐसा ही जन आंदोलन चला था, जब महात्मा गांधी के साथ दक्षिण अफ्रीका में घटना हुई थी। गांधी जी को पीटरमैरिट्ज बर्ग रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के आरक्षित प्रथम श्रेणी के डिब्बे से प्लेटफार्म पर फेंका गया था। फिर मई 1964 में डॉ. राम मनोहर लोहिया को जबरन एक अमरीकी श्वेत-रेस्त्रां से बाहर कर दिया गया था।
अचरज इसलिए हो रहा है कि सभ्यता अब इतनी विकसित हो गई, फिर भी चर्म के रंग पर विषमता जारी है। मामला अब तूल पकड़ रहा है क्योंकि ब्रिटेन के बार्मिंघम राजमहल में कल एनगोजी फुलानी नामक अफ्रीकी मूल की अश्वेत महिला का बादशाह चार्ल्स की रानी केमिला के सहायक अफसर ने उनके प्रवेश पर सवाल उठाये। उस अश्वेत महिला से बार-बार पूछा गया कि वह अफ्रीका के किस राष्ट्र से है ? आक्रोशित फुलानी ने कहा : "मैं ब्रिटेन में जन्मी ब्रिटिश नागरिक हूं।" मायने यह कि इतना अधिक आर्थिक विकास करके भी ब्रिटेन तथा अमेरिका अभी भी नस्लीय भेदभाव से ग्रसित हैं। यह वारदातें भारत में हो रहे दलित शोषण से भी अधिक जघन्य है।
आज अमरीकी घटना के ठीक छः दशक बीतने पर भी शोषकों का नजरिया नहीं बदला। यह घटना है 1955 की जब अश्वेत महिला रोज़ा पार्क्स ने अपनी बस की सीट छोड़ने से इनकार कर दिया था। बस के ड्राइवर जेम्स ने उन्हे गोरे यात्रियों के लिए सीट छोडने का आदेश दिया था। उस वक्त अमेरिका के दक्षिणी प्रदेश अलबामा में नस्लभेद अपनी चरम पर था। अश्वेत महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को बंदी बनाकर उनका लगातार शोषण किया जाता। उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं था, गोरे जिस रास्ते पर चलते, उस पर वे अपना पैर नहीं रख सकते थे, पानी के नल और बस की सीट तक बंटी हुई थीं। इस नस्लीय हिंसा और भेदभाव वाले समय में एक महिला ने किसी गोरे व्यक्ति के लिए बस की सीट से उठने से इनकार कर दिया था। इस पर बस के ड्राइवर ने पुलिस बुला ली और इस महिला को दोषी करार दिया गया। उस पर 10 डॉलर का जुर्माना लगाया गया और अलग से चार डॉलर की कोर्ट फीस भी देनी पड़ी। लेकिन इस महिला के विरोध ने यह निश्चित कर दिया था कि अश्वेतों की स्थिति जो अमेरिका में थी उसके ख़िलाफ़ वह आवाज़ उठाएगी। यह महिला थी रोज़ा लुईज़ मक्कॉली पार्क्स। इस घटना के बाद भी रोजा ने हार नहीं मानी और अमेरिका में समानता की लड़ाई का बिगुल बजा दिया। नस्लभेद के खिलाफ़ कानून को चुनौती दी जिसने दूसरे लोगों को भी अन्याय और भेदभाव का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। रोज़ा का अकेले का विद्रोह अब सब का बन गया था। यह नागरिक आंदोलन लगभग एक साल चला और अंत में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट को यह आदेश देना पड़ा कि अश्वेत नागरिक बस में कहीं भी बैठ सकते हैं।
रोज़ा पार्क्स के नागरिक अधिकारों के लिए आंदोलन का कानूनी असर सिविल राइट एक्ट के रूप में सामने आया जिसे अमरीकी कांग्रेस ने 1964 में लागू किया था। तब 1996 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन थे। रोजा पार्क्स को प्रेसिडेंशियल मेडल आफ फ्रीडम से सम्मानित किया गया था। कांग्रेसनल गोल्ड मेडल से भी सम्मानित किया गया जो कि संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा एक नागरिक को दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है। अक्टूबर 24, 2005 को 92 वर्ष की आयु में रोजा की मृत्यु हुई। आज भी अमेरिका में हर साल उनकी जन्मतिथि को मनाया जाता है। रोजा पार्क्स की 100वीं जन्मतिथि पर अमेरिकी डाक सेवा द्वारा उनकी याद में उनकी तस्वीर छपी टाक टिकट जारी की गई थी।
ठीक ऐसा ही अमरीकी गांधी मार्टिन लूथर किंग के साथ हुआ था। वे जब छह वर्षीय के थे। तो उसके हमजोली के पिता ने उन दोनों का साथ खेलना बंद क्यों करा दिया था। मां ने समझाया कि दक्षिण (अमरीका) में काले व गोरों में मेल नहीं है। श्वेत जाति वाले अलगाव रखते है। "यह रिवाज अमानुषिक है; किन्तु तुम्हें इससे खुद को हीन नहीं मानना चाहिए," मां ने समझाया। नस्ल- भेद की गूढ़ता बाल-मस्तिष्क के परे थी। बात मन में अखरती रही।
मार्टिन को हमेशा अचरज होता रहा कि रंगभेद का प्रचलन संयुक्त राज्य अमरीका जैसे राष्ट्र में है, जिसकी स्थापना का आधारभूत उसूल दो सदियों पूर्व निर्धारित हुआ था किः "सभी मनुष्य समान है।" उन्होंने पाया कि हर रविवार के ग्यारह बजे गिरजाघरों में प्रत्येक ईसाई दोहराता है, "ईसा के घर में न पूर्व है, न पश्चिम, सभी समान है।" फिर भी गोरे और काले अलग-अलग पक्तियों में खड़े रहते हैं। आखिर दीपक भी तो कालिमा ही लिए हुए रहता हैं।
बिना प्रतिहिंसा किये विरोधियों में हृदय-परिवर्तन करने की प्रक्रिया की विशिष्ट जानकारी के लिए मार्टिन ने 1959 में सत्याग्रह की प्रयोग-भूमि भारत की यात्रा की। उन्होंने गाँधी स्मारक निधि के तत्वावधान में महात्मा की विचारधारा का विशद अध्ययन किया। संत विनोबा से मिले। गांधी शताब्दी समारोह में भाग लेने आने निमंत्रण स्वीकार किया पर काल ने यह नहीं होने दिया। वे (अहमदाबाद), (पोरबंदर) और सेवाग्राम (वार्धा) आने वाले थे। अपनी प्रथम भारत यात्रा पर उन्होंने कहा थाः "बुरे के जवाब में भला करना यीशु ने सिखाया था। भारत में गांधी ने दिखाया कि यह संभव है, कारगर भी।"
अहिंसा के इस उपासक का हिंसक अंत हुआ। वे लारोइन मोटेल की छत से संबोधित कर रहे थे कि "हम अब कामयाब होंगे। शायद मैं आपके साथ मंजिल तक न पहुंच सकूं।" दूसरे दिन ही (4 अप्रैल 1963) उन्हें जेम्स अली राय नामक गोरे ने गोली मार दी। हालांकि न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि अमरीकी पुलिस इस हत्या की साजिश में लिप्त थी। हत्या के बाद सवा सौ शहरों में दंगे हुए, 46 मरे, तीन हजार घायल हुए, चैबीस हजार कैद हुये। इतना बड़ा जन विद्रोह अमरीका में कभी नहीं हुआ था।
अब सोशलिस्ट नेता डॉ लोहिया का किस्सा। रंगभेद के कारण अमेरिकी होटल में लोहिया को नहीं जाने दिया। उन दिनों वे अमेरिका दौरे पर थे। वहां कई विश्वविद्यालयों में और नागरिक अधिकार संगठनों में उनके लेक्चर हो रहे थे। वे 27 मई 1964 को वे अमेरिका के जैक्सन शहर पहुंचे, जहां एक कॉलेज में उनका लेक्चर था। हवाई अड्डे पर स्वागत के बाद लोहिया अमेरिकी मित्रों के साथ सीधे एक होटल में खाना खाने गए, किंतु उन्हें होटल में घुसने नहीं दिया गया, क्योंकि होटल में सिर्फ गोरे ही जा सकते थे। लोहिया मानते थे कि राष्ट्रों की सीमाएं भौगोलिक बंटवारा है, परंतु इंसान के साथ कहीं भी बंटवारा नहीं होना चाहिए। विदेशी धरती पर लोहिया रंगभेद का यह अन्याय सहन नहीं कर सके। उन्होंने वहीं पर आंदोलन की घोषणा की कि अगले दिन वे फिर आएंगे और जबरन उसी होटल में प्रवेश करेंगे। दूसरे दिन लोहिया तय समय पर होटल पहुंचे। उन्हें प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया गया। पुलिस पहले से बुला ली गई थी। वहां अपने संबोधन में लोहिया ने किसी भी मानव का रंगभेद के कारण नागरिक अधिकारों से वंचित किए जाने को जंगलीपन कहा। पुलिस और होटल मैनेजर ने लोहिया से वापस जाने को कहा, लेकिन लोहिया नहीं माने। तब पुलिस अधिकारी ने आगे बढ़कर कहा, 'मुझे खेद है, आपको गिरफ्तार करना पड़ेगा।
लोहिया के गिरफ्तार होने की सूचना अमेरिका में करंट की तरह फैल गई। भारतीय दूतावास के अधिकारी होटल पहुंचे। एक भारतीय की अमेरिका में रंगभेद के कारण गिरफ्तारी पर अमेरिकी साख को भी बट्टा लगता दिखा। अमेरिकी गृह विभाग के भी अधिकारी हरकत में आए और लोहिया रिहा किए गए। आनन-फानन में अमेरिकी गृह विभाग ने उनसे माफी मांगने के लिए एक बड़े अधिकारी को उनके पास भेजा। तब लोहिया ने कहा, "माफी मुझसे क्यों? अमेरिकी राष्ट्रपति को दुनिया के तमाम अश्वेत लोगों से माफी मांगनी चाहिए, जिनके प्रति गोरी चमड़ी वाले अन्याय कर रहे हैं।" तो यह वीरगाथा है विभेद के विरुद्ध मानव संघर्ष की जो अभी भी यह जारी है। भारत में जातिगत अत्याचार के खिलाफ भी।
K Vikram Rao
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जब तक नस्ल भेद होगा! धरती पर तूफान रहेगा!!
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