देर रात तक जागने वालों को जल्दी मौत का ख़तरा

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Place: New Delhi                                                👤By: Admin                                                                Views: 9289

जल्दी और देर से सोने वाले लोगों की सेहत पर एक नया अध्ययन हुआ है जिसके नतीजे 'निशाचरों' को परेशान कर सकते हैं.



इस अध्ययन में सामने आया है कि देर रात तक जागने वालों को जल्दी मौत का ख़तरा होता है. इसके अलावा उन्हें मनोवैज्ञानिक रोग और सांस लेने संबंधी दिक़्कतें भी हो सकती हैं.



लेकिन क्या देर रात तक जागना वाक़ई आपके लिए बुरा है? क्या इसका मतलब है कि 'रात के उल्लुओं' को अपनी आदत बदलकर सुबह की गौरैया बन जाना चाहिए?



दफ़्तर के दिनों में कमबख़्त अलार्म की कर्कश ध्वनि आपको बिस्तर से उठाकर अलग कर देती है.



शनिवार आते-आते आप नींद के मारे थक चुके होते हैं और फिर अपने रोज़ के समय से ज़्यादा सोते हैं.



यह सुनने में सामान्य लगता है, लेकिन यह इस बात का संकेत है कि आपको पर्याप्त नींद नहीं मिल रही और आप 'सोशल जेट लैग' के शिकार हैं.



'सोशल जेट लैग' हफ़्ते के दिनों के मुक़ाबले छुट्टी के दिन में आपकी नींद का अंतर है, जब हमारे पास देर से सोने और देर से उठने की 'सहूलियत' होती है.



सोशल जेट लैग जितना ज़्यादा होगा, सेहत की दिक्क़तें उतनी ज़्यादा होंगी. इससे दिल की बीमारी और मेटाबॉलिक परेशानियां हो सकती हैं.



म्यूनिख की लुडविग-मैक्समिलन यूनिवर्सिटी में क्रोनोबायोलॉजी के प्रोफ़ेसर टिल रोएनबर्ग के मुताबिक, "यही वो चीज़ है जिसके आधार पर ऐसे अध्ययन सुबह देर से उठने वालों के लिए सेहत से जुड़े ख़तरे ज़्यादा बताते हैं."



स्लीप एंड सर्कैडियन न्यूरोसाइंस इंस्टीट्यूट और नफ़ील्ड लेबोरेट्री ऑफ़ आप्थलमोलॉजी के प्रमुख रसेल फ़ोस्टर कहते हैं कि अगर आप सुबह जल्दी उठने वालों से देर रात तक काम करवाएं तो उन्हें भी स्वास्थ्य की दिक़्कतें होंगी.



तो देर रात जागने वाले क्या करें?



क्या वीकएंड पर मिलने वाली अपनी बेशक़ीमती लंबी नींद का त्याग कर दें?



प्रोफेसर रोएनबर्ग कहते हैं, "यह सबसे ख़राब बात होगी."



वह मानते हैं कि देर रात तक जागना अपने आप में बीमारियां पैदा नहीं करता.



वह कहते हैं, "अगर आप पांच दिनों तक कम सोए हैं तो आप अपनी नींद की भरपाई करेंगे ही और ऐसा आप तभी कर पाएंगे जब आपके पास वक़्त होगा."



ऐसा इसलिए भी है कि हमारे सोने-जागने का समय सिर्फ़ आदत या अनुशासन का मसला नहीं है. यह हमारी बॉडी क्लॉक पर निर्भर करता है जिसका 50 फ़ीसदी हिस्सा हमारे जीन तय करते हैं.



बाकी 50 फ़ीसदी हिस्सा हमारा पर्यावरण और उम्र तय करती है. इंसान बीस की उम्र में देर से सोने के चरम पर होता है और उम्र बढ़ने के साथ हमारा बॉडी क्लॉक पहले की ओर खिसकता जाता है.



यूनिवर्सिटी ऑफ़ सरे में क्रोनोबायोलॉजी के प्रोफेसर मैल्कम वॉन शांत्ज़ कहते हैं, "हमने ये मान लिया है कि देर तक जागने वाले लोग किसी काम के नहीं होते और आलसी होते हैं, लेकिन असल में यह इंसानी जीवविज्ञान है."



यही विज्ञान है जो उल्लुओं और सुबह चहचहाने वाले पक्षियों को भी प्रभावित करता है.



जानकार मानते हैं कि वीकएंड पर जल्दी उठ जाने से आप अपनी जेनेटिक प्रवृत्तियों से नहीं उबर पाएंगे बल्कि इससे आप अपनी नींद से और वंचित ही होते रहेंगे.



इसके बजाय अपने बॉडी क्लॉक को भ्रमित करने का बेहतर तरीक़ा रोशनी से जुड़ा है. हमारा बॉडी क्लॉक सूरज के उगने और छिपने से प्रभावित होता है, लेकिन हम में से बहुतों को दिन में कम सूरज की रोशनी नसीब होती है और रात में कृत्रिम प्रकाश ज़्यादा मिलता है.



इससे हमें नींद जल्दी नहीं आती. यह देर रात तक जागने वालों की आम समस्या है, जो पहले से ही अपने जीव विज्ञान के चलते 'देरी' के शिकार होते हैं.



सुबह सूरज की रोशनी लेकर और रात में कृत्रिम रोशनी - ख़ास तौर पर हमारे फोन और लैपटॉप से आने वाली नीली रौशनी- से ख़ुद को बचाकर हम अपने बॉडी क्लॉक को जल्दी नींद बुलाने की ट्रेनिंग दे सकते हैं.



नींद पर वैज्ञानिक अध्ययन करने वाले कहते हैं कि इसमें दफ़्तरों, स्कूलों और समाज की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि वे रात में जागने वालों को स्वीकार करें.



इसकी शुरुआत इस तरह हो सकती है कि ज़्यादा कर्मचारियों को शाम से देर रात तक काम करने की इजाज़त दी जाए.



इसके अलावा प्रोफेसर फॉस्टर के मुताबिक, लोग अपने बॉडी क्लॉक के हिसाब से दफ़्तरों में काम करेंगे तो यह ज़्यादा तर्कपूर्ण होगा.



इससे कर्मचारियों का प्रदर्शन भी बेहतर होगा और चौबीस घंटे चलने वाले कारोबार को इससे फ़ायदा ही होगा.



प्रोफेसर रोएनबर्ग एक क़दम आगे बढ़कर कहते हैं, "यह समाज का काम है कि वह इसका ख़्याल रखे. यह समाज का काम है कि वह इमारतों में और रोशनी बढ़ाए, साथ ही नीली रोशनी को कम करे ताकि लोग अपने बॉडी क्लॉक को बदले बिना टीवी देख सकें."



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