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आत्म-विशुद्धि एवं कृत-कर्माें की समीक्षा का पर्व

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Place: New Delhi                                                👤By: DD                                                                Views: 18740

पुुरी के सागर पर दस दिनों तक चलने वाली जगन्नाथ रथयात्रा को महायात्रा कहा जाता है, यह भारत में मनाए जाने वाले धार्मिक महामहोत्सवों में सबसे प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण है। जगन्नाथ रथ उत्सव आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया से आरंभ करके शुक्ल एकादशी तक मनाया जाता है। यह रथयात्रा न केवल भारत अपितु विदेशों से आने वाले पर्यटकों के लिए भी बहुत दिलचस्पी और आकर्षण का केंद्र बनती है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार जगन्नाथ की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है, इस उत्सव के समय आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है, विलक्षण और दुर्लभ है। इस रथयात्रा के दौरान भक्तों को सीधे प्रतिमाओं तक पहुँचने का बहुत ही सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है।



भारत के चार पवित्र धामों में से एक पुरी के 800 वर्ष पुराने मुख्य मंदिर में श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। साथ ही यहाँ बलभद्र एवं सुभद्रा भी विराजित हैं। इन तीनों के रथ बनाये जाते हैं। ये रथ लकड़ी के बने होते हैं। इन रथों के नाम हैंः जगन्नाथजी के रथ को 'गरुड़ध्वज' या 'कपिलध्वज', बलरामजी के रथ को तालध्वज एवं सुभद्राजी का रथ 'दर्पदलन' व 'पद्मध्वज'। पौराणिक मान्यता है कि द्वारका में एक बार सुभद्राजी ने नगर देखना चाहा, तब भगवान श्रीकृष्ण एवं श्री बलराम ने उन्हें एक पृथक रथ पर बैठाकर अपने रथ के मध्य में उनका रथ करके नगर का भ्रमण कराया। इसी घटना की याद में हर साल तीनों देवों को रथ पर बैठाकर नगर के दर्शन कराए जाते हैं। रथयात्रा से जुड़ी कई अन्य रोचक कथाएं भी हैं जिनमें से एक जगन्नाथजी, बलरामजी और सुभद्राजी की अपूर्ण मूर्तियों से भी संबंधित हैं। इस रथयात्रा का एक मुख्य आकर्षण महाप्रसाद भी होता है। यह महाप्रसाद जगन्नाथ पुरी मंदिर स्थित रसोई में बनता है। इस प्रसाद में दाल-चावल के साथ कई अन्य चीजें भी होती हैं जो भक्तों को बेहद कम दाम पर उपलब्ध कराई जाती है। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद यहां विशेष रूप से मिलता है।



जगन्नाथ रथयात्रा से जुड़े कुछ बेहद रोचक तथ्य हैं। जैसे जगन्नाथ पुरी इकलौता ऐसा मंदिर है जहां के तीनों ही भगवान भाई-बहन हैं। दुनियाभर के हिन्दू तीर्थों और मन्दिरों में केवल इसी तीर्थस्थल से मूर्तियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है। इस यात्रा के सात दिन पहले से मंदिर के कपाट बंद हो जाते हैं क्योंकि भगवान जगन्नाथ स्वास्थ्य लाभ के लिये जगह में बदलाव लाने के लिए उन्हें उनकी मौसी के घर भेजा जाता है। इन तीनों भाई-बहनों को गुण्डिचा बाड़ी यानी मंदिर ले जाया जाता है। इस मंदिर के बारे में प्रचलित है कि यहीं पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था। हर वर्ष तीन नए रथों का निर्माण होता है जिनमें कि नई लकड़ियों और सामान का प्रयोग किया जाता है पर ये तीनों रथ पिछले साल के रथ के टू कॉपी होते हैं। इन रथों के निर्मित की प्रक्रिया धार्मिक आस्था से जुड़ी है, कहा जाता है कि यह ईष्र्या, द्वेष, अहंकार एवं लोभ का गलाने की प्रक्रिया है। मतलब सालों से ये रथ एक जैसे दिखते आ रहे हैं और वास्तुकला एवं नक्काशी के अद्भुत नमूने हैं। कहते हैं मौसी के घर जाते समय भगवान बीच में आगे बढ़ने से इनकार कर देते हैं। ऐसे में बहुत जोर लगाने पर ही इनका रथ आगे बढ़ता है। पुरी में राजाओं के वंशज अभी भी रहते हैं। ऐसे में जब तक पुरी के राजा खुद आकर असली सोने की बनी झाडू से रास्ते को साफ नहीं करते तब तक भगवान मंदिर से बाहर नहीं निकलते। नौ दिनों तक मौसी के घर में रहने के बाद जब भगवान को वापस लाया जाता है तो बीच में वे एक जगह रूककर अपनी पसन्द की मिठाई पोडा पीठा जरूर खाते हैं। कहते हैं हर साल इस यात्रा के दिन पुरी में बारिश जरूर होती है।



कहते हैं कि रथयात्रा के तीसरे दिन यानी पंचमी तिथि को देवी लक्ष्मी, भगवान जगन्नाथ को ढूंढते हुए यहां आती हैं। तब द्वैतापति दरवाजा बंद कर देते हैं, जिससे देवी लक्ष्मी रुष्ट होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और 'हेरा गोहिरी साही पुरी' नामक एक मुहल्ले में, जहां देवी लक्ष्मी का मंदिर है, वहां लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ द्वारा रुष्ट देवी लक्ष्मी मनाने की परंपरा भी है। यह मान-मनौवल संवादों के माध्यम से आयोजित किया जाता है, जो एक अद्भुत भक्ति रस उत्पन्न करती है।



आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ पुनः मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं। जगन्नाथ मंदिर वापस पहुंचने के बाद भी सभी प्रतिमाएं रथ में ही रहती हैं। देवी-देवताओं के लिए मंदिर के द्वार अगले दिन एकादशी को खोले जाते हैं, तब विधिवत स्नान करवा कर वैदिक मंत्रोच्चार के बीच देव विग्रहों को पुनः प्रतिष्ठित किया जाता है। तब इनका शृंगार विभिन्न आभूषणों एवं शुद्ध स्वर्ण से किया जाता है, इस धार्मिक अनुष्ठान को सुनबेसा कहा जाता है। वास्तव में रथयात्रा एक सामुदायिक पर्व है। इस अवसर पर घरों में कोई भी पूजा नहीं होती है और न ही किसी प्रकार का उपवास रखा जाता है। एक अहम् बात यह कि रथयात्रा के दौरान यहां किसी प्रकार का जातिभेद देखने को नहीं मिलता है। ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के बीच भक्तगण भक्तिगीतों को गाते हुए इन रथों को एक विशाल जन-समुदाय खींचता है और हर्षपूर्वक जयकारा लगाता है। यह जयकारे एवं भक्तिगीतों की ध्वनि एक तीन दूर तक सुनी जा सकती है। कहते हैं, जिन्हें रथ को खींचने का अवसर प्राप्त होता है, वह महाभाग्यवान माना जाता है। मान्यता है कि रथ खींचने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है। शायद यही बात भक्तों में उत्साह, उमंग और अपार श्रद्धा का संचार करती है।



वर्तमान रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, वराह, कूर्म, नृसिंह, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, वामन, बुद्ध, कल्की हैं। जगन्नाथ मंदिर की पूजा, आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं नेे शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन धर्मावलम्बियों को भी प्रभावित किया है। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण निर्मल बुद्धि, शांत चित्त और अहंकारमुक्ति से होता है, ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मिलन का दुर्लभ संयोग होती है और जीवन को पवित्र बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करता है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। सांसारिक जीवन जीते हुए इंसान को नेकी करने के लिये एवं जीवन की शुद्धता-पवित्रता के लिये प्रतिबद्ध होना चाहिए, आत्म-शुद्धि ही इस यात्रा का सन्देश है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है। इस तरह यात्रा में ईश्वर और भक्त दोनों को ही महत्व दिया गया है। सचमुच! कितना पवित्र है आत्म-विशुद्धि एवं कृत-कर्माें की समीक्षा का यह धार्मिक अनुष्ठान। यह पारदर्शी मन का निर्माण करता है और अपनी भूलों को सुधारने के लिये तत्पर करता है। यह धार्मिक पर्व संकल्प बने पवित्र जीवन का। हम भूलों की पुनरुक्ति का अभ्यास छोडे़। जगन्नाथ रथयात्रा एक बहुत ही प्रसिद्ध भक्ति एवं श्रद्धा का उत्सव है। केवल जगन्नाथपुरी में ही नहीं, देश के अन्य भागों में भी रथयात्रा के जुलूस निकाले जाते हैं।





प्रेषक: ललित गर्ग

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