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सरकारी स्कूलों की गिरती साख की चुनौती

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Place: Bhopal                                                👤By: DD                                                                Views: 18940

सरकारी स्कूलों की लगातार गिर रही साख एक गंभीर चिन्ता का विषय है। भूमंडलीकरण के दौर में शिक्षा के नवीन एवं लीक से हटकर प्रयोग हो रहे हैं, ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में भारत में सरकारी स्कूलों का भविष्य क्या होगा? यह एक अहम सवाल है। यह सवाल इसलिये भी महत्वपूर्ण हो रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक नया भारत बनाने एवं राष्ट्र की मूलभूत विसंगतियों को दूर करने में जुटे हैं। क्या कारण है कि शिक्षा जैसे बुनियादी प्रश्नों पर अभी भी ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। हाल ही में मानव संसाधन मंत्रालय ने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को लेकर कुछ बड़े कदम उठाते हुए निर्णय लिये हैं, जिनके सकारात्मक परिणाम सामने आने चाहिए। लेकिन प्रश्न जितने बडे़ है, समस्या जितनी गंभीर है, उसे देखते हुए व्यापक एवं लगातार प्रयत्नों की अपेक्षा है।



मानव संसाधन मंत्रालय ने सभी राज्य सरकारों से कहा है कि शिक्षकों को जनगणना, चुनाव या आपदा राहत कार्यों को छोड़कर अन्य किसी भी ड्यूटी पर न लगाया जाए। सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 में संशोधन करते हुए शिक्षकों की ट्रेनिंग अवधि मार्च 2019 तक बढ़ा दी है। 2010 में यह कानून लागू हुआ था तो देश भर में करीब साढ़े चैदह लाख शिक्षकों की भर्ती की गई थी। इनमें बहुतों के पास न तो बच्चों को पढ़ाने के लिए कोई डिग्री थी, न प्रशिक्षण। इनकी ट्रेनिंग का काम 31 मार्च 2015 तक पूरा होना था, जो नहीं हो पाया तो अब अधिनियम में संशोधन करना पड़ा है। 14 साल तक के सभी बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा मिले, इसके लिए इस संशोधन का स्वागत होना चाहिए, लेकिन सरकारी स्कूलों की बीमार हालत को देखते हुए ऐसे फैसलों को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हुआ जा सकता। क्योंकि बहुत से सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहाँ पर्याप्त शिक्षक नहीं है। एक या दो शिक्षकों के ऊपर 100 से ज्यादा बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी है। वर्तमान में सतत एवं व्यापक मूल्यांकन की बात हो रही है, लेकिन लंबे-लंबे प्रशिक्षण सत्रों के बीच सतत पढ़ाई के सिलसिले की सांस उखड़ रही है, शिक्षक करीब एक महीने तक विभिन्न ट्रेनिंग सत्रों का हिस्सा होने के कारण स्कूल से बाहर होते हैं। शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कामों में लगाने और शिक्षा की गिरते हुए स्तर के लिए उनको ही जिम्मेदार ठहराने की कोशिशें साथ-साथ जारी हैं। इन स्थितियों में बदलाव की आवश्यकता है।



सबसे अहम सवाल है कि सरकारी स्कूलों को प्राइवेट स्कूलों से प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम बनाना होगा। इसके लिये साधनों के साथ-साथ सोच को विकसित करना होगा। कोरा शिक्षकों को प्रशिक्षित करने से क्या फायदा यदि इन स्कूलों में बच्चे ही नहीं आते हो। दोहरी शिक्षा व्यवस्था ने अभिभावकों के मन में यह बात बिठा दी है कि बच्चे को पढ़ाना है तो उसे इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजा जाए। हालांकि ऐसे स्कूलों के लिए भी कोई मानक नहीं है और इनमें ज्यादातर का हाल सरकारी स्कूलों जैसा ही है। जाहिर है, समस्या सिर्फ शिक्षकों की ट्रेनिंग से नहीं जुड़ी है। समस्या है सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता बढ़ाने की, उनको प्रतिष्ठित करने की। इस समस्या से उबरने के लिए नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने शिक्षा को प्राइवेट हाथों में सौंप देने का सुझाव दिया है, लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है। बल्कि उसके अपने खतरे हैं। प्राइवेट स्कूलों की वकालत करने की बजाय सरकारी स्कूलों को प्राइवेट जैसा बनाने की आवश्यकता है।



पिछले कुछ सालों में सरकारी स्कूलों में जिस तेजी के साथ कागजी काम बढ़ रहा है, उससे स्कूल एक 'डेटा कलेक्शन एजेंसी' के रूप में काम करते नजर आते हैं। अभी बहुत से शिक्षकों का शिक्षण कार्य कराने वाला समय आँकड़े जुटाने में या गैर-शैक्षणिक गतिविधियों में इस्तेमाल हो रहा है। स्कूलों का हाल ये है कि शिक्षक योजनाओं की डायरी भर रहे हैं। बच्चे कक्षाओं में खाली बैठे हैं। उनके बस्ते बंद है। वे शिक्षकों का इंतजार कर रहे हैं कि वे क्लासरूम आएं और पढ़ाएं। उनको कोई काम दें। उनको कुछ बताएं। पिछली पाठ जहाँ पर छूटा था, वहां से आगे पढ़ाएं। जबकि शिक्षक व्यवस्था के आदेश की पालना करने में जुटे हैं। वे बच्चों की अपेक्षाओं के अनुरूप काम नहीं कर पा रहे हैं। वे बच्चों को पढ़ाने वाली योजनाओं के ऐसे पन्ने काले-नीले करने में जुटे हैं जो कक्षाओं में कभी लागू नहीं हो सकतीं। इसके अनेकों कारण हैं, समय की कमी। क्षमताओं का अभाव। कागजी काम का दबाव। जो शिक्षकों को अपने काम से विमुख कर रहे हैं। उन पर तरह-तरह के दबाव है। कभी जनगणना तो कभी चुनाव, कभी मेराथन तो कभी नेताजी का भाषण- शिक्षकों की स्थिति 'सरकारी आदेश' से बंधे हुए उस गुलाम की तरह है, जिसके मन में कहने के लिए बहुत कुछ है मगर वह खामोश है। क्योंकि उसके पास सरकारी आदेश की प्रति है।



ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार सरकारी स्कूलों की दशा और दिशा को सुधारने की बजाय इसे एक बला के रूप में देख रही है। ऐसी जमीनी स्थिति को देखते हुए लगता है मानो सरकारी स्कूलों के निजीकरण की कहानी का 'प्रारंभिक अध्याय' लिखने का काम शुरू हो गया है। केंद्रीय स्तर पर शिक्षा के बजट में होने वाली कटौती को भी एक संकेत के बतौर देखा जा रहा है। कुछ राज्यों में सरकारी स्कूलों को पीपीपी मॉडल के रूप में संचालित करने के प्रयोग भी हो रहे हंै। भारत में एक दौर था, जब बहुत से निजी स्कूलों को आरटीई का डर था और उनके ऊपर दबाव था कि इस कानून के आने के बाद उनको अपनी स्थिति बेहतर करनी होगी। या फिर स्कूल बंद करने होंगे। मगर अभी तो पूरी परिस्थिति पर सिस्टम यू-टर्न लेता हुआ दिख रहा है। स्थितियां निजी स्कूलों के पक्ष में जाती हुई नजर आती हैं।



भारत में शिक्षा का अधिकार कानून एक अप्रैल 2010 से लागू किया गया। इसे सात साल पूरे हो गए हैं। इसके तहत 6-14 साल तक की उम्र के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का प्रावधान किया गया है। शिक्षा की स्थिति खराब होने का एक कारण शिक्षा में बहुत गहरे तक घुसी हुई राजनीति भी है। हर फैसले में राजनीति होती है। जहां राजनीति नहीं होती, वहां बाकी नीतियां होती हैं। कभी आठवीं तक फेल नहीं करने की नीति लागू होती है तो कभी उसे हटा दिया जाता है, ऐसे ही निर्णय पाठ्यक्रम को लेकर लागू किये जाते हैं, आखिर कब तक शिक्षा जैसे बुनियादी विषयों पर राजनीति होती रहेगी? अगर सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर ऊपर उठाना है तो उसके लिए सबसे पहले मानव संसाधन मंत्रालय कोे स्वयं शिक्षा के प्रति अपना नजरिया बदलना चाहिए। इसके बाद शिक्षकों का बदलते दौर के साथ शिक्षा के प्रति अपना नजरिया दुरुस्त करने की सलाह देनी चाहिए। शिक्षा से संबंधित बड़े फैसलों में शिक्षकों के विचारों को जगह देनी चाहिए, यहां शिक्षकों का मतलब शिक्षकों की राजनीति से जुड़ी इकाइयां बिल्कुल नहीं है।



सुखी परिवार फाउण्डेशन का एकलव्य माॅडल आवासीय स्कूल पिछले आठ-नौ वर्षों से गुजरात के आदिवासी गांवों के होनहार आदिवासी बच्चों को शिक्षा दे रहा है। ये बच्चे गरीबी रेखा के नीचे वाले घरों से हैं। इन स्कूली बच्चों का रिजल्ट तो कमाल का है ही, विभिन्न खेलकूद, सांस्कृतिक एवं अन्य गतिविधियों में भी इन बच्चों ने जो प्रतिभा का प्रदर्शन किया है, उसे एक उदाहरण के रूप में सरकारी स्कूलों को लेना चाहिए। यदि हम आजादी के सात दशकों के बाद भी सरकारी स्कूलों को सक्षम नहीं बना पा रहे हैं तो यह हमारी कमी को ही दर्शाता है। संस्कृति और मूल्यों की गौरवमयी विरासत को बचाने एवं स्वर्णिम भारत को निर्मित करने के लिये आवश्यक है कि शिक्षा के अधूरेपन को दूर किया जाये। इस हेतु हम दीर्घकालीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति की संभावनाओं को तलाशें और बिना राजनैतिक हस्तक्षेप के लागू करें ताकि योजना आयोग को सरकारी स्कूलों को प्राइवेट क्षेत्र में देने का सुझाव न देना पड़े।



प्रेषक: ललित गर्ग

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