गुजरात में बदलते चुनावी परिदृश्यों का सन्देश

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Place: Bhopal                                                👤By: DD                                                                Views: 21235

गुजरात में जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे चुनावी समीकरण बदल रहे हैं, लोगों की उत्सुकता बढ़ती जा रही है। हर कोई बस यही जानना चाहता है कि गुजरात चुनाव में इस बार जनादेश का ऊंट किस करवट बैठेगा। आजादी के सात दशकों में हुए तमाम चुनावों में सर्वाधिक उत्सुकता एवं कोतूहल वाला है गुजरात का यह चुनाव। जनता किस पार्टी को बहुमत से नवाजेगी, यह भविष्य के गर्भ में हैं। गुजरात के मतदाताओं का रुझान साफ नजर नहीं आ रहा है। लेकिन यह तय है कि इस चुनाव के परिणाम से सम्पूर्ण भारत की राजनीतिक दिशाएं एवं दशाएं तय होने वाली है।



गुुजरात से आ रही चुनावी हवाओं एवं हर पल बदल रही फिजाओं को देखते हुए कहा जा सकता है यह चुनाव असाधारण हैं, विलक्षण है और इसके परिणाम भारत के चुनावों की परम्पराओं को आमूल-चूल बदल देगा। लोकतंत्र को एक नया सन्देश देगा। गुजरात की जनता के तेवरों की वजह से सशक्त कही जाने वाली भाजपा के भी होश उडे़ हुए है। अन्य राजनीतिक दलों में खलबली मची हुई है। यह खलबली ही गुजरात की जमीनी हकीकत को खुद बयान कर रही है। यह खलबली बता रही है कि इन चुनावों के बाद भारत के राजनीतिक एजेंडे के वे आधार वाक्य बदल सकते हैं जिन पर पिछले पांच सालों से लगातार भारत के आम आदमी का भाग्य बदलने या बनाने की बात हो रही है। गुजरात में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा रैलियां सम्बोधित करने का नया रिकार्ड बता रहा है कि वे इस चुनाव को लेकर कितने चिन्तीत एवं संवेदनशील है, क्योंकि यह चुनाव न केवल उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न है बल्कि उनका भावी राजनीति जीवन एवं रणनीति भी इसी से तय होनी है।



मोदी और गुजराती मतदाताओं के बीच लम्बे अरसे से अटूट प्यार और विश्वास का रिश्ता है, जो अब एक आदत में तब्दील हो चुका है। गुजरात का सामान्य मतदाता सरकार से नाराजगी और लाख शिकायतों के बावजूद मोदी के साथ अपना रिश्ता तोड़ने को तैयार नहीं है। 20 वर्ष से राज्य की सत्ता पर काबिज भाजपा को गंभीर चुनौती दे रही स्थितियों ने भाजपा के सम्मुख अंधेरा खड़ा किया है। बात केवल नरेन्द्र मोदी या अमित शाह की ही नहीं बल्कि विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी इस मोर्चे पर ज्यादा मजबूत दिखाई नहीं दे रही है। फिर चुनाव का परिणाम क्या होगा? इस तरह की द्वंद्वपूर्ण स्थिति तब पैदा होती है जब मतदाता ज्यादा तकलीफ में होता है, उसकी परेशानियां ज्यादा सघन होती है। कांग्रेस एवं उनके नेता इन चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे उठाने के साथ-साथ ही गुजरात मूलक ऐसे विषय उठा रही है जिनका सीधा सम्बन्ध केन्द्र की नीतियों से है, मसलन नोटबन्दी, जीएसटी, व्यापार में छाया सन्नाटा तथा बढ़ती बेरोजगारी। हमारे राष्ट्र के सामने अनैतिकता, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, ठप्प होता व्यापार, बढ़ती जनसंख्या की बहुत बड़ी चुनौतियां पहले से ही हैं, उनके साथ आतंकवाद सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है। राष्ट्र के लोगों के मन में भय छा गया है। कोई भी व्यक्ति, प्रसंग, अवसर अगर राष्ट्र को एक दिन के लिए ही आशावान बना देते हैं तो वह महत्वपूर्ण होते हैं। पर यहां तो निराशा और भय की लम्बी रात की काली छाया व्याप्त है। यही छाया गुजरात के चुनाव परिणाम की दिशा बनने जा रही है।



हमारा राष्ट्र नैतिक, आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक सभी क्षेत्रों में मनोबल के दिवालिएपन के कगार पर खड़ा है। और हमारा नेतृत्व गौरवशाली परम्परा, विकास और हर खतरों से मुकाबला करने के लिए तैयार है, का नारा देकर अपनी नेकनीयत का बखान करते रहते हैं। पर अच्छा इरादा, अच्छे कार्य का विकल्प नहीं होता। मोदीजी ने देश को नयी दिशाएं दी है, आशा का संचार किया है, लेकिन कुछ कामों को करने की जल्दबाजी एवं प्रचण्ड बहुमत का अहंकार उनको लेकर की गयी संभावनाओं पर इतने जल्दी प्रश्नचिन्ह खड़े कर देगा, सोचा नहीं था। इन स्थितियों का जवाब भाजपा गुजराती अस्मिता और राष्ट्रीय गौरव व विकास के अपने पैमाने से देने की कोशिश कर रही है, लेकिन मतदाता अब ठगे जाने के लिये तैयार दिखाई नहीं दे रहा है।



न जाने क्यों बिना जमीन के ही कांग्रेस लाभ की स्थिति में दिखाई दे रही है। वह इस बार गुजरात में मजबूत नजर आ रही है। लेकिन प्रारंभिक दिनों में उसे कुछ बढ़त ही मिलने की स्थिति थी लेकिन अब एक तरफ उसे पाटीदारों और दलितों का खासा समर्थन मिल रहा है, वहीं अच्छी चुनावी रणनीति ने रेस में कांग्रेस को बीजेपी से आगे कर रखा है। ऐसे हालात और एक अलग किस्म के राजनीतिक परिवेश में गुजरात 2017 का चुनाव कांग्रेस के लिए किसी आश्चर्यकारी परिणाम का माध्यम बन सकता है। एक महत्वपूर्ण गढ़ जीत लेना पप्पु से पापा बन जाने को चरितार्थ कर सकता है। कांग्रेस अगर कोई बड़ी सियासी गलती न करे, तो उसके लिए गुजरात में जीत का परचम लहराना मुमकिन हो सकता है। बिना लाग-लपेट और पूरी निष्पक्षता के साथ कहा जाये तो इन चुनावों का एजेंडा राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य की बुनावट की जमीन तैयार करने का माध्यम है। यदि कांग्रेस जीत हासिल करती है तो दम तोड़ चुकी पार्टी में नये प्राणों का संचार होगा और राहुल की ताजपोशी से पहले उसके सफल राजनीति जीवन की द्योतक भी हो सकती है।



अब देखना भाजपा को है और इन स्थितियों को देखते हुए भाजपा को अपनी राजनीतिक रणनीति तय करनी है। नरेंद्र मोदी गुजरात में कांग्रेस की जीत की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं। उनको अभी कमतर आंकना भूल ही होगी। क्योंकि मोदी गुजरात में बीजेपी को इतनी आसानी से हारने नहीं दंेगे। गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य है, वहां की जनता मोदी को गुजराती अस्मिता का प्रतीक मानती है। यही वजह है कि गुजराती समुदाय मोदी से परे कुछ और सोच और देख ही नहीं पाता है। भाजपा भले ही गुजरात में ऑल इज वेल का दावा कर रही है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि गुजराती मतदाताओं को इस बार राज्य और केंद्र की बीजेपी सरकार से ढेरों शिकायतें हैं। आखिर क्या वजह है कि दोनों ही मोर्चें पर शिकायतों के इतने अंबार लग गये? इस प्रश्न पर गंभीरता से मंथन की जरूरत है।



गुजरात चुनाव के सन्दर्भ में यह एक सचाई है कि वर्तमान केन्द्र सरकार ने थोथे नारों के दौर से देश को काफी हद तक बाहर निकाला है। आवश्यकता है केवल थोक के भावों से भाषण न दिये जायें, अभिव्यक्ति और किरदार यथार्थ पर आधारित हों। उच्च स्तर पर जो निर्णय लिए जाएं, वे देश हित में हों। दृढ़ संकल्प हों। सवा अरब देशवासियों की मुट्ठी बंधे, विश्वास जगे। जंगल में वनचरों ने अपनी लक्ष्मण रेखाएं बना रखी हैं। राजनेता क्यों नहीं बनाता? क्यों लांघता रहता है अपने झूठे स्वार्थों के लिए?



रंगमंच पर नायक अभिनय करता है, चुनाव के मैदान में राजनेताओं के चरित्र को जीना पड़ता है, कथनी-करनी में समानता, दृढ़ मनोबल, इच्छा शक्ति, नेकनियति और संयमशीलता के साथ। महात्मा गांधी के प्रिय भजन की वह पंक्ति- ?सबको सन्मति दे भगवान? में गुजरात चुनाव के सन्दर्भ में फिलहाल थोड़ा परिवर्तन हो- ?केवल राजनेताओं को सन्मति दे भगवान?। एक व्यक्ति पहाड़ (जिद के) पर चढ़कर नीचे खडे़ लोगों को चिल्लाकर कहता है, तुम सब मुझे बहुत छोटे दिखाई देते हो। प्रत्युत्तर में नीचे से आवाज आई तुम भी हमें बहुत छोटे दिखाई देते हो। बस! यही कहानी तब तक दोहराई जाती रहेगी जब तक राजनीतिक दल अपने को सर्वेसर्वा एवं चुनाव के दौरान मतदाता अपने अधिकारों का सही एवं निष्पक्ष उपयोग नहीं करता। मतदाता एक दिन का राजा होता है। उसके इरादे को कोई बदल दे यह लोकतन्त्र में संभव ही नहीं है। मतदाता तो उस शह का नाम है जिसके आगे राजनीतिक दल कठपुतली की तरह नृत्य करते हैं। गुजरात में इस बार कठपुतली के इस नृत्य में मनोरंजन भी है और संवेदनशीलता भी। अब देखना है गुजरात के भाल पर किसका सूरज चमकता है।





- ललित गर्ग,

दिल्ली-110051

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