लियो तोलस्तोय 'अन्ना' और 'वार एण्ड पीस' जैसी विश्व प्रसिद्ध कृतियों के लेखक थे, फिर भी लिखते-लिखते डिप्रेशन में डूब जाते, विषाद की काली छाया उन्हें घेर लेती। अक्सर वे मेरे जीवन का क्या अर्थ है? प्रश्न का उत्तर ढूंढते हुए जीवन का अंत करने की सोचने लगते थे। दुनिया में ऐसे मनःस्थिति से हर विचारशील एवं उन्नतिशील व्यक्ति ग्रस्त है। आदमी हर समय प्रसन्न रहना चाहता है, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो रहा है। कुछ इसके अपवाद भी है, कुछ लोग हर परिस्थिति में प्रसन्न रहते हैं, विषाद की काली छाया कभी उनके चेहरों पर दिखाई नहीं देती। वे कोई बहुत धनी और ऊंचे पद पर प्रतिष्ठित आदमी भी नहीं हैं, न उनके पास कोई साधन-सामग्री है, अभावों में ही उनका जीवन बितता है, इसीलिये ऐसे लोग आधुनिक युग के लिए आश्चर्य का विषय बने हुए है। प्रश्न है कि ऐसे लोग किसी भी परिस्थिति में उदास और निराश क्यों नहीं होते? हंसना-मुस्कराना उनका स्थायी स्वभाव कैसे बन जाता है? ऐसे ही एक व्यक्ति ने सदाबहार प्रसन्नता का रहस्य उद्घाटित करते हुए कहा- मैं वर्तमान को जीता हूं। मेरी अशुद्ध स्मृतियां नष्ट हो चुकी हैं। अतीत को भुलाने का मेरा अभ्यास है। अशुद्ध और बुरी कल्पनाओं से मैं मुक्त हूं। मेरे चिंतन और विचार निर्मल हैं, इसी कारण मैं शांति और प्रसन्नता का जीवन जीता हूं।
जिन्दगी का एक लक्ष्य है-संतुलित जीवन जीना। हमारा जीवन स्वस्थ, आदर्शभरा, संयममय एवं चरित्र को नई पहचान देने वाला होना चाहिए। जीवनशैली के शुभ मुहूत्र्त पर हमारा मन उगती धूप ज्यूं ताजगी-भरा और प्रेरणादायक होना चाहिए। क्योंकि अनुत्साही, भयाक्रांत, शंकालु, अधमरा मन बीच रास्ते में घुटने टेक देगा। यदि हमारे पास विश्वास, साहस, उमंग और संकल्पित मन है तो दुनिया की कोई ताकत हमें अपने पथ से विचलित नहीं कर सकती और सफलता का राजमार्ग भी यही है।
जो है, उसे छोड़कर, जो नहीं है उस ओर भागना हमारा स्वभाव है। फिर चाहे कोई चीज हो या रिश्ते। यूं आगे बढ़ना अच्छी बात है, पर कई बार सब मिल जाने के बावजूद वही कोना खाली रह जाता है, जो हमारा अपना होता है। दुनियाभर से जुड़ते हैं, पर अपने ही छूट से जाते हैं। जीवन में सदा अनुकूलता ही रहेगी, यह मानकर नहीं चलना चाहिए। परिस्थितियां भिन्न-भिन्न होती हैं और आदमी को भिन्न-भिन्न परिस्थितियों का सामना करना होता है। अगर आदमी का मनोबल मजबूत है, स्वभाव शांत है तो वह किसी भी परिस्थिति को शांति के साथ झेलने में समर्थ हो सकता है। संत मदर टेरेसा ने कहा है, 'अगर दुनिया बदलना चाहते हैं तो शुरुआत घर से करें और अपने परिवार को प्यार करें।'
प्रसन्न जीवन का बहुत सरल और सीधा फार्मूला है कि हम वर्तमान में जीना सीखे। जो लोग अतीत में या भविष्य में जीते हैं, उनकी इस तरह की सोच के अपने खतरे हैं। वे अतीत से इतने गहरे जुड़ जाते हैं और बंध जाते हैं कि उससे अपना पीछा नहीं छुड़ा पाते। सोते-जागते, बीती बातों मेें ही खोए रहते हैं। उन्हें नहीं पता कि अतीत सुख देता है तो बहुत दुख भी देता है। स्मृतियां सुखद हैं तो कल्पना में हर समय वे ही छाई रहती हैं। बात-बात में आदमी जिक्र छेड़ देता है कि मैंने तो वह दिन भी देखे हैं कि मेरे एक इशारे पर सामने क्या-क्या नहीं हाजिर हो जाता था। क्या ठाट थे। शहंशाही का जीवन जीया। खूब कमाया और खूब लुटाया। मेरी चैखट पर बड़े-बड़े लोग माथा रगड़ते थे। दिल्ली तक हमारी पहुंच थी। एक फोन से घर बैठे कितने लोगों के काम करवा देता था- इस तरह की न जाने कितनी बातें लोगों के सामने करते हैं। इससे उन्हें एक अव्यक्त सुख मिलता है तो उससे कहीं ज्यादा दुख मिलता है कि अब वैसे दिन शायद नहीं आएंगे।
हालांकि पीड़ा और दुख सार्वभौमिक घटनाएं हैं। इसका कारण है दूसरों का अनिष्ट चिंतन करना। इस तरह का व्यवहार स्वयं को भारी बनाता है और अपनी प्रसन्नता को लुप्त कर देता है। किसी का बुरा चाहने वाला और बुरा सोचने वाला कभी प्रसन्न नहीं रह सकता। वह ईष्र्या और द्वेष की आग में हर समय विदग्ध होता रहता है। मलिनता हर समय उसके चेहरे पर दिखाई देगी। एक अव्यक्त बेचैनी उस पर छाई रहेगी। उद्विग्न और तनावग्रस्त रहना उसकी नियति है। वह कभी सुख से नहीं नहीं जी सकता।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रसन्नता को कायम रखना है तो दूसरों के लिये एक भी बुरा विचार मन में नहीं आना चाहिए। मन में एक भी बुरा विकल्प आया तो वह तुम्हारे लिये पीड़ा और दुख का रास्ता खोल देगा। दूसरे के लिए सोची गई बुरी बात तुम्हारे जीवन में ही घटित हो जाएगी। आदमी कभी-कभी आक्रोश में आकर कटु शब्दों का प्रयोग कर लेता है, एक शब्द से सामने वाले व्यक्ति को आक्रोश में लाया जा सकता है और एक शब्द से सामने वाले व्यक्ति के आक्रोश को शांत किया जा सकता है।
अपने आपको शांत बनाए रखने के लिए और माहौल को सुंदर बनाने के लिए शब्दों पर ध्यान देना चाहिए कि आदमी किस प्रकार के शब्दों का प्रयोग कर रहा है। मेरा मानना है कि एक बात को कड़ाई के साथ भी कहा जा सकता है और उसी बात को बड़ी शालीनता और मृदुता के साथ भी कहा जा सकता है। कभी-कभी कठोर बात भी यदि विवेक पूर्वक कही जाती है तो वह भी लाभदायी होती है। शब्द का प्रभाव तो होता ही है किन्तु शब्द से ज्यादा उसके अर्थबोध का प्रभाव होता है। एक आदमी अंग्रेजी भाषा को जानता ही नहीं, उसे अंग्रेजी में कुछ भी बोल दिया जाए, अर्थबोध के अभाव में उसके मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी। किन्तु यही बात अंग्रेजी भाषा को समझने वाले व्यक्ति से कह दी जाए तो वह बात उसे प्रभावित कर सकती है। इसलिये संतुलन एवं शांत-स्वभाव का बहुत मूल्य हैं।
प्राणी में अनेक प्रकार के भाव होते हैं। उसमें लोभ होता है तो संतोष भी होता है। उसमें परिग्रह की चेतना होती है तो त्याग, संयम की चेतना भी जाग जाती हैं। आसक्ति होती है तो अनासक्ति का भाव भी जाग जाता है। संत के लिए कहा कि वे अहिंसा के पुजारी होते हैं। जो अपने शरीर से, वाणी से और मन से किसी को दुःख नहीं देते, किसी की हिंसा नहीं करते, ऐसे संतों का तो दर्शन ही पापनाशक है। दया आदमी के जीवन का एक गुण होता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो आदमी आशा, लालसा से रहित हो जाए, अपने चित्त और आत्मा पर नियंत्रण कर ले, सर्व परिग्रह को त्याग दे, वह साधक शरीर से काम करते हुए भी पापों का बंधन नहीं करता। अगर जीवन में संयम आ गया तो फिर शारीरिक प्रवृत्ति कर्मबंध का हेतु नहीं बनती। संयम और दया की चेतना एक संत में ही बल्कि जन-साधारण में भी होनी चाहिए। आदतों को मनुष्य बदलना नहीं चाहता। बंधी-बंधाई जीवनशैली उसकी नियति होती है। लेकिन हमें समझना होगा कि आदत विकास-पथ का रोड़ा है। लेकिन समझदार मन कभी जड़ नहीं होता। समय बदलता है, विचार बदलते हैं, व्यवहार बदलता है और उसके साथ रहने के तौर-तरीके भी। प्यार और खुशी की ओर जाने वाले रास्ते कठिन नहीं हैं। मुश्किल है तो अपने बीते कल से बाहर निकलना। यह सोचना कि आने वाला कल भी आज जैसा ही होगा, यह हमारी भूल एवं भ्रम है। महान अंग्रेजी साहित्यकार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ कहते हैं, 'जो अपना मन नहीं बदल सकते, वो कुछ भी नहीं बदल सकते।'
- ललित गर्ग
दिल्ली-110051
जीवन की तलाश में जीवन का अंत क्यों?
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Bhopal 👤By: PDD Views: 20386
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