केंद्र सरकार ने दागी और आपराधिक नेताओं एवं जनप्रतिनिधियों के मामलों का निस्तारण करने के लिए बारह विशेष अदालतें गठित करने एवं इसके लिये अलग से वित्त मंत्रालय ने राशि की व्यवस्था की है, सरकार के इस कदम से निश्चित ही दागी नेताओं पर नियंत्रण होगा एवं राजनीति में आपराधिक तत्वों की घुसपैंठ पर काबू पाया जा सकेगा। जरूरत है विशेष अदालतों को मील का पत्थर साबित होने की। लोकतंत्र में भय कानून का होना चाहिए, व्यक्ति का नहीं- इस स्थिति को लाने के लिये इन विशेष अदालतों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। सात दशक बाद देश में ऐसी स्थिति बनेगी, जिसमें दागी सांसदों और विधायकों की खैर नहीं होगी, निश्चित ही यह यह स्थिति राजनीति को उजाला देगी, एक नयी सुबह होगी। इससे राजनीति को अपराधमुक्त बनाने की दिशा में सफलता हासिल होगी। यह विडम्बनापूर्ण ही है कि हमारे नीति निर्माता स्वयं तो आपराधिक होते हैं और वे अपराधों पर नित्रंयण के लिये कानून बनाते हैं। इस तरह की स्थितियों से राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है।
सुप्रीम कोर्ट ने दागी सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित मुकदमों को एक वर्ष के भीतर निपटाने को देश हित में बताते हुए केंद्र सरकार को विशेष अदालतों का गठन करने के लिए कहा था। कोर्ट ने इन विशेष अदालतों का गठन फास्ट ट्रैक कोर्ट की तर्ज करने को कहा था ताकि सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित मामलों का जल्द निपटारा किया जा सके। सरकार तो चाहती है कि सजायाफ्ता जनप्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर भी आजीवन पाबंदी लगे। हमारे राजनीति में इस तरह के बड़े सुधारों की जरूरत है, क्योंकि राजनीति अपराधी, धनी और शक्तिशाली लोगों का खेल बनती जा रही है। आज देश की राजनीति एवं सत्ता भ्रष्टाचार, अपराध और हिंसा से लबालब है। चुनाव में धनबल, बाहुबल और अपराधी तत्वों का बोलबाला है जो हमारे लोकतंत्र को खोखला कर रहे हंै। पहले नेताओं और अपराधियों की सांठगांठ होती थी और उनका इस्तेमाल किया जाता था लेकिन अब खुद अपराधी राजनीति में आने लगे हैं। लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां ऐसे लोगों को शह देती हैं जिनपर हत्या, बलात्कार से लेकर दंगे भडकाने के गंभीर मामले दर्ज हैं।
चुनाव आयोग की तरफ से कोर्ट में रखे गए आंकड़े के मुताबिक 2014 में कुल 1581 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित थे। इसमें लोकसभा के 184 और राज्यसभा के 44 सांसद थे। यह आंकड़ा इन नेताओं के चुनावी हलफनामे के आधार पर तैयार किया गया है। इससे इन्कार नहीं कि तमाम विधायक एवं सांसद ऐसे हैं जिन पर संगीन आरोप हैं, लेकिन सभी को एक ही तराजू से नहीं तौला जा सकता। कई मामले सामान्य किस्म के भी हो सकते हैं। विडंबना यह है कि आपराधिक मामले चाहे सामान्य हों या गंभीर, उनके निस्तारण की गति धीमी ही रहती है। मामले को गंभीरता से लेते हुए कोर्ट ने कहा था कि किसी राज्य में अदालतों का गठन आमतौर पर राज्य सरकार करती है। लेकिन इस मामले में देरी से बचने के लिए केंद्र सरकार एक योजना बना कर विशेष अदालतों का गठन करें। अब सरकार ने बताया है कि वह लोकसभा सांसदों के मुकदमों के फास्ट ट्रेक निपटारे के लिए 2 अदालत बनाना चाहती है। जिन राज्यों में लंबित आपराधिक मामलों वाले विधायकों की संख्या ज्यादा है, वहां भी 1-1 अदालत का गठन किया जाएगा। फिलहाल इस तरह के 12 विशेष अदालतों का गठन किया जाएगा। इनके जिम्मे सिर्फ नेताओं यानी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ चल रहे भ्रष्टाचार और अन्य अपराधिक मामलों की ही सुनवाई होगी। सरकार ने कोर्ट के गठन के लिए चुनाव आयोग के आंकड़ों को ही आधार बनाया है। उसने लंबित मुकदमों पर अपनी तरफ से कोई आंकड़ा नहीं दिया है। जो प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश किया उस पर जल्द फैसले की उम्मीद की जाती है, क्योंकि इस मसले पर पहले ही देर हो चुकी है। यह अच्छा हुआ कि पहले दागी नेताओं के मामलों की सुनवाई की अलग से व्यवस्था करने के सुझाव से असहमत सुप्रीम कोर्ट अब यह महसूस कर रहा कि राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगाने की आवश्यकता है और यह काम दागी जनप्रतिनिधियों के मामलों के निस्तारण पर ध्यान देकर ही किया जा सकता है। हमारी राजनीति तीन 'एम' से पीड़ित है, मनी पावर-धन शक्ति, मसल पावर-बाहुबल और सत्ता पावर-मंत्रिपद की ताकत अर्थात सरकारी तंत्र का दुरूपयोग। इसे तीन-सी-कैश यानी पैसा, क्रिमिनल्स यानी अपराधी, बहुबली और करप्शन यानी भ्रष्टाचार भी कहा जा सकता है।
निश्चित ही केन्द्र सरकार, चुनाव आयोग एवं न्यायालय की पहल से चुनाव आचार संहिता की सख्ती से किसी कारण बचकर राजनेता बने लोगों पर अब कमान कसी जा सकेगी। इन आपराधिक छवि वाले राजनेता के सम्मुख चुनाव आयोग की आचार संहिता के लम्बे हाथ भी बौने हो जाते हैं। मतदाता का रोल भी समाप्त हो जाता है। जब ये अपराधिक तत्व जन-प्रतिनिधि बन जाते हैं तो उनके अपराध की अंधी गलियों और चैड़ी हो जाती है। उनको अपने अपराधों को सरेआम करने के लिये एक तरह का लाइसैंस मिल जाता है, इसी दिन के लिए तो वे चुनाव लड़ते हैं और येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतते हैं। वरना सेवा तो वे लोग ज्यादा करते हैं जो सत्ता से बाहर हैं। पर वैसे लोगों को केवल आदर मिलता है और नेताओं के पेट आदर से नहीं भरते, उनकी जीभ अंगुलियों पर है। धन्यवाद मोदी सरकार को जिसने इस बार आपराधिक जनप्रतिनिधियों के पंख कतरकर जमीन पर लाने की ठान ली है। उच्चतम न्यायालय ने भी राजनीतिक सुधार के बिन्दुआंे को वैधानिकता देने का मन बनाकर प्रभावी उपक्रम किया है। क्योंकि जैसे "भय के बिना प्रीत नहीं होती", वैसे ही भय के बिना सुधार भी नहीं होता। इस लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमी यही रही कि अपराधिक तत्वों के राजनीति में आने का सबसे बड़ा हल्ला यह था की कहीं हल्ला नहीं है। निश्चित ही इसका कोई औचित्य नहीं कि गंभीर आरोपों से घिरे नेता संसद एवं विधानमंडलों में आसीन रहें। लोकतंत्र के इन देवालयों में ऐसे नेताओं की मौजूदगी राजनीति के अपराधीकरण को बल देने का ही काम करती है।
गौरतलब है कि भारतीय राजनीति में लंबे समय से अपराधियों का बोलबाला रहा है। तमाम मामलों में या तो राजनेता सजा पाने की स्थिति तक पहुंच ही नहीं पाते, या पहुंच भी जाते हैं तो वे ऊंची अदालत में अपील करके स्थगनादेश प्राप्त कर लेते हैं और फिर चुनाव लड़ने में कामयाब रहते हैं। इसलिए अरसे से इस पर विचार चल रहा है कि क्यों न सजायाफ्ता मुजरिमों को आजीवन चुनाव लड़ने से रोक दिया जाए? कटु सत्य तो यह है कि हमारा राजनीतिक तंत्र आज भी दागी नेताओं से भरा हुआ है, जो पूरी राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित-संचालित कर रहा है। इसका एक बड़ा कारण है नेताओं के खिलाफ मामलों के निपटारे में होती देरी। उन पर मुकदमे बीसों साल तक लंबित रहते हैं और कोई नतीजा आने से पहले ही वे अपनी पूरी सियासी पारी खेल जाते हैं। इस वजह से आज हमारा पूरा तंत्र ही एक दागी तंत्र बनकर रह गया है। देश में भ्रष्टाचार की एक बड़ी वजह है यह दागी नेता और उनके भ्रष्टाचारी तौर-तरीके। इस बीमारी से तभी मुक्त हुआ जा सकता है जब आरोपी राजनेता के खिलाफ चल रहे मुकदमे जल्द से जल्द अपने मुकाम पर पहुंचें और दोषी पाए जाने पर उसे जीवनभर चुनाव न लड़ने दिया जाए और सख्त सजा का प्रावधान किया जाये। कुछ बरसों से चुनाव आयोग की सख्ती के चलते बूथ कैप्चरिंग जैसी बुराइयों से तो निजात मिल गई है, लेकिन बाहुबलियों और अपराधियों का मनोबल आज भी पस्त नहीं हुआ। इसके लिए हमारे राजनीतिक दल भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। आखिर क्यों वे ऐसे दागियों को टिकट देते हैं? क्या सिर्फ चुनाव जीतना ही सब कुछ है? अगर दागियों को टिकट ही न दिया जाए तो इस ज्वलंत समस्या पर अंकुश लग सकता है। पर ऐसी आदर्श स्थिति लाने के लिये कोई भी आगे आने को तैयार नहीं है।
एक समस्या यह भी है कि कई बार विशेष और यहां तक कि फास्ट ट्रैक अदालतें भी मामलों का निस्तारण करने में लंबा समय ले लेती हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया के तौर-तरीकों में अपेक्षित बदलाव और सुधार नहीं हो पा रहा है। परिणाम यह है कि हर तरह के मुकदमों का अंबार लगता जा रहा है। क्या यह विचित्र नहीं है कि सबसे बड़ी मुकदमेबाज राज्य सरकारें ही हैं? बेहतर हो कि जहां सरकारें यह देखें कि नौकरशाह बात-बात पर अदालत पहुंचने से बाज आएं वहीं न्यायपालिका भी मामलों के जल्द निस्तारण के वैकल्पिक तौर-तरीके खोजे। इसके तहत आपराधिक मामलों के साथ-साथ अन्य सभी तरह के मामलों के त्वरित निस्तारण पर ध्यान दिया जाना चाहिए। हालांकि एक अर्से से यह महसूस किया जा रहा है कि विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग न्यायाधिकरण बनाए जाने की जरूरत है, लेकिन कोई नहीं जानता कि इस दिशा में आगे क्यों नहीं बढ़ा जा रहा है?
राजनेताओं और अपराधियों की दिनोंदिन बढ़ती सांठगांठ त्रासदी से कम नहीं है। वैसे सितंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने मतदाताओं को नापसंदगी का हक देकर एक ठोस पहल की थी। हालांकि चुनाव सुधार के लिए तारकुंडे समिति, गोस्वामी समिति, वोहरा कमेटी जैसी अनेक समितियों ने अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी हैं लेकिन निजी हितों के कारण किसी भी दल ने इन्हें लागू करने की जहमत नहीं उठाई। आज जरूरत व्यापक चुनाव सुधार की है जिससे राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोका जा सके और लोकतंत्र कोे शुद्ध सांसें दी जा सके। इसके लिए केवल न्यायिक प्रक्रिया को सख्त करने से आमूल-चूल परिवर्तन नहीं होगा, राजनीतिक दलों को मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी। आज राजनीति का अपराधीकरण जितना भयंकर रूप धरण कर चुका है, उसके निराकरण के लिए उतने ही दृढ़ संकल्प एवं इच्छाशक्ति की आवश्यकता है, इस दिशा में विशेष अदालतें अपनी उपयोगिता सिद्ध करें, यह अपेक्षित है। प्रेषक
(ललित गर्ग)
दिल्ली-110051
विशेष अदालतें मील का पत्थर साबित हो
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Bhopal 👤By: Admin Views: 3297
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