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न्याय की धीमी गति पर खड़े हुए सवाल

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Place: Bhopal                                                👤By: Admin                                                                Views: 3586

देश में कानून प्रक्रिया की धीमी एवं सुस्त गति एक ऐसी त्रासदी बनती जा रही है, जिसमें न्यायालयों में न्याय के बजाय तारीखों का मिलना, केवल पीड़ित व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि समूची व्यवस्था को घायल कर देती है। इससे देश के हर नागरिक के मौलिक अधिकारों का न केवल हनन होता है बल्कि एक बदनुमा दाग न्याय प्रक्रिया पर लग जाता है। इनदिनों जिस तरह के राजनीतिक अपराधों के न्यायालयी निर्णय सामने आये हैं, उन्होंने तो न्याय प्रणाली पर अनेक प्रश्न ही जड़ दिये हैं। बात चाहे चारे घोटाले की हो या 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की। देश की जनता का कानून व्यवस्था पर भरोसा उठने लगा है। आज न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी बंधे होने अर्थ है कि वह सब कुछ देख कर अनदेखा कर रही है, लेकिन आंखों पर पट्टी ही नहीं कानों में अब तो अवरोध भी लगा दिये गये हैं जो कानून के अंधे होने के साथ-साथ बहरे होने के भी परिचायक हंै। सशक्त लोकतंत्र के लिये राजनीति को अपराध मुक्त करना जरूरी है तो न्याय प्रणाली को भी विलम्ब मुक्त करना होगा।



2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले पर आये निर्णय ने तो चैंकाया ही है साथ ही साथ चारा घोटाले के एक और मामले में लालू यादव और कुछ अन्य लोगों को दोषी करार दिया गया। कोई नहीं जानता कि वह दिन कब आएगा जब चारे घोटाले के सारे मामलों में भी फैसला आएगा और इन सब मामलों का अंतिम तौर पर निस्तारण होगा? यह संतोष का विषय है कि देर से ही सही, नेताओं के भ्रष्टाचार से जुड़े मामले अदालतों द्वारा निपटाए जा रहे हैं या फिर इस पर हैरानी प्रकट की जाए कि न्याय की गति इतनी धीमी क्यों है?



न्याय की धीमी गति ऐसा प्रश्न है जो न केवल न्याय प्रणाली पर बल्कि हमारे समूची लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर एक ऐसा दाग है जिसने सारे दागों को ढंक दिया है। एक तरह से अपराध पर नियंत्रण की बजाय अपराध को प्रोत्साहन देने का जरिया बनती जा रही है हमारी कानून व्यवस्था। न्याय के विलम्ब से अपराध करने वालों के हौसले बुलन्द रहते हैं कि न्याय प्रक्रिया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती या बीस-पचीस वर्षों में फैसला आयेगा जब तक स्थितियां बहुत बदल चुकी होगी, अपराध करने वाले जिन्दा रहेंगे भी या नहीं। अदालती फैसलों की विडम्बना ही कही जायेगी कि जब अनेक निर्णय आते हैं तब तक तो अपराधी स्वर्ग पहुंच चुके होते हैं। यह सही है कि चारा घोटाला सरकारी धन की लूट का एक बड़ा मामला था और उसमें नेताओं और नौकरशाहों के साथ चारा आपूर्ति करने वाले भी तमाम लोग शामिल थे, लेकिन आखिर इसके क्या मायने कि जो घोटाला 1996 में उजागर हुआ उसमें फैसला 2017 में हो रहा है? राम रहीम से पीड़ित साध्वी का उदाहरण भी हमारे सामने है। उन्हें अपनी पहचान छिपाते हुए देश के सर्वोच्च व्यक्ति माननीय प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपनी पीड़ा बयान की थी। फिर भी न्याय मिलने में 15 साल और भाई का जीवन लग गया। यह वह देश है जहाँ बलात्कार की पीड़ित एक अबोध बच्ची को कानूनी दाँवपेंचों का शिकार होकर 10 वर्ष की आयु में एक बालिका को जन्म देना पड़ था। जहाँ साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित को सुबूतों के अभाव के बावजूद वर्षों जेल में रहना पड़ा है। यह देर ही नहीं, एक तरह की अंधेर है। इसी अंधेरगर्दी एवं अदालती कामकाज पर शोध करने वाली बंगलुरु की एक संस्था के अध्ययन में यह बात सामने आई है कि देश के कुछ हाईकोर्ट ऐसे हैं जो मुकदमों का फैसला करने में औसतन चार साल तक लगा दे रहे हैं। वहीं निचली अदालतों का हाल इससे भी दुगुना बुरा है। वहां मुकदमों का निपटारा होने में औसतन छह से साढ़े नौ साल तक लग जा रहे हैं। हाईकोर्ट के मामले में देश भर में सबसे बुरा प्रदर्शन राजस्थान, इलाहाबाद, कर्नाटक और कलकत्ता हाईकोर्ट का रहा है। निचली अदालतों में गुजरात सबसे फिसड्डी है, जिसके बाद उड़ीसा, झारखंड, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र आदि आते हैं।



यह भी न्याय प्रणाली की एक बड़ी विसंगति ही कही जायेगी कि चारे घोटाले में विशेष अदालत के इस फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दी जाएगी-ठीक वैसे ही जैसे पहले आए फैसले को लेकर दी गई थी। इस पर भी गौर करें कि जिस मामले में लालू यादव को दोषी पाया गया और जगन्नाथ मिश्र बरी किए गए उसमें कुल 38 आरोपियों में से 11 की मौत हो चुकी है। एक हजार करोड़ के इस घोटाले से जुड़े अनेक तथ्य चिन्तनीय है और बड़े सवाल खड़े करते हैं। क्या किसी को परवाह है कि ऐसी स्थिति क्यों बन रही है? अपने देश की न्यायिक प्रक्रिया की सुस्त रफ्तार कोई नई-अनोखी बात नहीं। न जाने कितने मामले वर्षों और दशकों तक तारीख पर तारीख से दो-चार होते रहते हैं, आखिर कब तक ये स्थितियां चलती रहेगी और प्रश्नों से घिरी रहेगी?



राजनीतिक अपराधों एवं भ्रष्टाचार में लिप्त राजनेताओं पर आरोप लगता रहा है कि वे कानून को अपने इशारों पर नचाते हंै। वे अपनी पहुंच और प्रभाव के चलते पहले तो अपने खिलाफ जांच को प्रभावित करने का हर संभव जतन करते हैं और फिर अदालती प्रक्रिया में अडंगा डालने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। दुर्भाग्य से कई बार वे सफल भी होते हैं। जिस कानून से आमजन न्याय की उम्मीद लगाता है, उसी कानून के सहारे उसने अपराधियों को बच के निकलते हुए देखा है, यह दुर्भाग्यवपूर्ण ही कहा जायेगा।



राजनीतिक अपराधों के मामलों में एक स्वर यह भी सुनने को मिलता रहा है कि आज तक किसी बड़े राजनेता को कोई सजा नहीं हुई है। एक तरह से राजनीति अपराध करने का लाईसैंस बनता गया है। अपवाद स्वरूप जब कभी किसी राजनेता को कोई सजा हो भी जाती है तो वे एक काम यह भी करते हैं कि निचली अदालत के फैसले के बाद जमानत हासिल कर जनता के बीच जाकर सहानुभूति अर्जित करते हैं। इस दौरान वे कानून के प्रति अपनी कथित आस्था का दिखावा करते हुए यह प्रचार भी करते रहते हैं कि उन्हें राजनीतिक बदले की कार्रवाई के तहत फंसाया गया। कई बार तो वे जेल जाने की अच्छी-खासी राजनीतिक कीमत वसूल कर लेते हैं। जब ऐसा होता है तो सम्पूर्ण न्याय प्रणाली एवं शासन का उपहास ही उड़ता है। यह किसी से छिपा नहीं कि लालू यादव ने किस तरह अपने खिलाफ चल रहे मुकदमों को राजनीतिक तौर पर भुनाया। यदि नेताओं और अन्य प्रभावशाली लोगों के आपराधिक मामलों में त्वरित न्याय की कोई ठोस व्यवस्था नहीं बनती तो न्याय होना न होने बराबर है। बल्कि ऐसे न्याय की तो निर्थकता ही साबित होना तय है। बेहतर हो कि नीति-नियंता इस पर गंभीरता से विचार करें कि नेताओं के मामलों के निस्तारण में जरूरत से ज्यादा देरी क्यों रही है?



इसमें कोई शक नहीं कि मौजूदा न्यायिक प्रणाली बेहद धीमी गति से काम कर रही है। नतीजतन में अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या करोड़ों तक पहुंच चुकी है। राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बीते तीन दशकों में मुकदमों की संख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है। अगर यही स्थिति बनी रही तो अगले तीस वर्षों में देश के विभिन्न अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या करीब पंद्रह करोड़ तक पहुंच जाएगी। इस मामले में विधि एवं न्याय मंत्रालय के आंकड़े भी चैंकाने वाले हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश में 2015 तक देश के विभिन्न अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित थे।



एक कहावत है कि दुश्मनों को भी अस्पताल और कचहरी का मुंह न देखना पड़े। इसके पीछे तर्क यही है कि ये दोनों जगहें आदमी को तबाह कर देती हैं। और जीतनेवाला भी इतने विलंब से न्याय पाता है, वह अन्याय के बराबर ही होता है। छोटे-छोटे जमीन के टुकड़े को लेकर तीस-चालीस साल मुकदमे चलते हैं। फौजदारी के मामले तो और भी संगीन स्थिति है। अपराध से ज्यादा सजा तो लोग फैसला आने के पहले ही काट लेते हैं। यह सब केवल इसलिए होता है कि मुकदमों की सुनवाई और फैसले की गति बहुत धीमी है। वर्षों तक मुकदमे फैसले के इंतजार में पीड़ितों का न सिर्फ समय और पैसा बर्बाद होता है, बल्कि सबूत भी धुंधले पड़ जाते हैं। देश में आबादी के लिहाज से जजों की संख्या बहुत कम है, विकसित देशों की तुलना में कई गुना कम। बात केवल अदालतों से न्याय नहीं मिल पाने तक सीमित नहीं है, बात न्यायिक प्रक्रिया में लगने वाले समय की भी है और न्याय संस्कृति को दुरुस्त करने की भी है।

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- ललित गर्ग

दिल्ली- 11 0051

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