पूरे भारत के चुनावी नतीजों पर बात करने में सबसे महत्वपूर्ण साबित हुआ है पश्चिम बंगाल.
पश्चिम बंगाल में माइनॉरिटी अपीज़मेंट बड़ा मुद्दा रहा है. ममता बनर्जी की छवि अल्पसंख्यकों को रिझाने वाली नेता की बन गई थी, ख़ासकर के दुर्गा पूजा और मोहर्रम के जुलूसों को लेकर हुए विवाद की वजह से. इसका नुकसान उनकी पार्टी को उठाना पड़ा है.
ध्रवीकरण के माहौल में बड़ी तादाद में हिंदू वोटर बीजेपी की ओर चला गया है.
पश्चिम बंगाल में बीजेपी की बढ़त की एक और बड़ी वजह वामपंथी दलों का पूरी तरह ख़त्म होना है.
वामदलों का वोट प्रतिशत गिरकर छह प्रतिशत तक आ गया है. कहा जा रहा है कि वामपंथी दलों के अधिकतर कार्यकर्ताओं ने इस बार बीजेपी को वोट दिया है.
अब देखने की बात ये होगी कि बीजेपी के निशाने पर ममता बनर्जी रहेंगी. वो बीजेपी का टार्गेट नंबर एक होंगी.
वहीं अगर बात राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों की हो तो वहां विधानसभा चुनावों में भले ही स्थानीय मुद्दे हावी रहे लेकिन राष्ट्रीय चुनावों में लोगों ने इकतरफ़ा कांग्रेस को नकारा है.
जहां-जहां कांग्रेस बीजेपी के सामने मुख्य मुक़ाबले में थी वहां-वहां पर कोई टक्कर नहीं दे पाई है.
मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ है. सिर्फ़ पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह ही बीजेपी और सहयोगी दलों को टक्कर दे पाए हैं.
मेरा पहले यह विश्लेषण था कि कांग्रेस सीधे मुक़ाबले में बीजेपी को टक्कर नहीं दे पाएगी और गठबंधन करके ही मुक़ाबला कर सकती है.
लेकिन महाराष्ट्र और बिहार को देखें तो ये विश्लेषण भी नाकाम हो गया है. दोनों ही राज्यों में कांग्रेस ने गठबंधन किया लेकिन ये गठबंधन भी कुछ नहीं कर सका.
इस चुनाव की त्रासदी यही है कि इसका कोई विश्लेषण ही नहीं किया जा सकता है.
'कोई विकल्प नहीं दे पाया'
आप चाहें जितना अमित शाह और नरेंद्र मोदी का स्तुति गान कर लें और राहुल गांधी की चाहें जितनी भी आलोचना कर लें लेकिन एक बिंदू पर जाकर इसका भी कोई मतलब नहीं रह जाएगा.
दरअसल विपक्ष जनता को मोदी के सामने एक विकल्प नहीं दे पाया.
बीते पचास साल में ये पहली बार हुआ है जब दिल्ली में कोई सरकार दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ लौटी है.
पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बाद ये पहली बार है जब कोई प्रधानमंत्री पूर्ण बहुमत लेकर सत्ता में लौटा है.
शरद यादव, शरद पवार, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव या मायावती जैसे विपक्षी दलों के नेता अपने-अपने इलाक़ों के मठाधीश बने रहे और मोदी का विकल्प देने में पूरी तरह नाकाम रहे.
बीजेपी हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा को आगे लेकर चलती है. लेकिन विपक्ष इसका सीधा मुक़ाबला करने में पूरी तरह नाकाम रहा है.
विपक्षी सीधे इस मुद्दे से टकराने के बजाए इसके दायें-बायें घूम रहा है.
बड़ा संदेश ये है कि देश ने मोदी और उनकी विचारधारा को स्वीकार किया है.
इस चुनाव ने देश को काफी बांटा है और अब नरेंद्र मोदी के सामने देश को एक साथ लेकर आने की चुनौती होगी.
विपक्ष को भी अपना ईवीएम का मुद्दा पूरी तरह तुरंत ही छोड़ना होगा.
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मोदी के सामने क्यों नहीं टिक पाया विपक्ष?
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