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आतंकी सरकार से किनारा करता अंतर्राष्ट्रीय ‌जगत

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Place: Bhopal                                                👤By: DD                                                                Views: 12924


कृष्णमोहन झा/
आखिरकार अफगानिस्तान में तालिबान को कड़ी मशक्कत के बाद बनी अपनी अंतरिम सरकार का शपथग्रहण समारोह रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा और बिना शपथ लिए ही तालिबान सरकार के सभी मंत्रियों ने अपना काम काज शुरू कर दिया। गौरतलब है कि शपथ ग्रहण समारोह में शिरकत करने के लिए पाकिस्तान सहित जिन 6 देशों के सत्ता प्रमुख आमंत्रित किये गये थे उनमें पाकिस्तान ही एकमात्र ऐसा देश था जिसके बारे में यह माना जा रहा था कि वह तालिबान सरकार के शपथ समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकता है । बाकी पांच देशों की सरकारों ने तालिबान सरकार के शपथग्रहण समारोह का आमंत्रण स्वीकार नहीं किया था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शपथग्रहण के लिए 11 सितंबर की जो तारीख तय की गई थी ठीक उसी तारीख ‌‌‌‌‌‌‌को 20 साल पहले अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर भयानक आतंकी हमला हुआ था जिसमें 2500 से अधिक लोग मारे गए थे और सैकड़ों घायल हुए थे। शायद तालिबान ने अपनी सरकार के शपथग्रहण समारोह के लिए जानबूझकर 11 सितंबर की तारीख का चयन अमेरिका के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने की मंशा से किया था परंतु अंतिम क्षणों में तालिबान सरकार ने शपथग्रहण समारोह रद्द करने का फैसला लेकर अनेक कयासों को जन्म दिया है। यूं तो तालिबान सरकार ने यह कहा है कि पैसों की बर्बादी रोकने की मंशा से उसने शपथग्रहण समारोह रद्द किया है परंतु इसकी असली वजह यह मानी जा रही है कि तालिबान को अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी किरकिरी से बचने के लिए शपथग्रहण समारोह रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि उसे अंदाजा हो चुका था कि उसकी सरकार में बड़ी में कुख्यात आतंकियों को शामिल किए जाने से शपथ ग्रहण समारोह मेंं आमंत्रित देशों में से कोई भी देश अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का इच्छुक नहीं है। इसीलिए उसे शपथ ग्रहण की रस्म को भव्यता प्रदान करने की महत्वाकांक्षा का परित्याग करना पड़ा। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि तालिबान सरकार में जिस तरह कुख्यात आतंकियों को महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री पद से नवाजा गया उसके कारण अंतरराष्ट्रीय जगत में उसकी किरकिरी हो रही थी । ऐसी स्थिति में पाकिस्तान को छोड़कर कोई भी देश इस आतंकी सरकार के शपथग्रहण समारोह का हिस्सा नहीं बनना चाहता था। इसीलिए नवगठित तालिबान सरकार ने अपना शपथग्रहण समारोह रद्द करने में ही अपनी भलाई समझी। इससे बड़े आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान से पलायन कर उसी तालिबान को वहां की सत्ता पर काबिज होने का अवसर उपलब्ध करा दिया जिसका नामोनिशान मिटाने की प्रतिज्ञा के साथ उसने बीस पहले अफगानिस्तान की धरती पर अपनी फौजें उतारी थीं। दरअसल अमेरिका ने यह मान लिया था कि आज का तालिबान वैसा बर्बर नहीं है जैसा वह बीस साल पहले था लेकिन पिछले कुछ दिनों से अफगानिस्तान में तालिबान की बर्बरता की जो दिल दहला देने वाले किस्से सुनाई दे रहे हैं उससे यह साबित हो गया है कि 20 साल पहले के और आज के तालिबान में कोई फर्क नहीं है। हां, इतना जरूर है कि वह आज पहले से अधिक ताकतवर बन चुका है जिसमें अपने परोक्ष योगदान के आरोप से अमेरिका बच नहीं कर सकता। अफगानिस्तान की नवगठित तालिबान सरकार में जिस मोस्ट वांटेड आतंकियों को महत्वपूर्ण पदों से नवाजा गया है उससे अमेरिका को भी भली-भांति यह समझ आ गया होगा कि उसने अफगानिस्तान में तालिबान के लिए सत्ता के द्वार खोलकर एक बार फिर से आतंकी संगठनों को फलने फूलने का माहौल उपलब्ध करा दिया है।अफगानिस्तान की नवगठित तालिबान सरकार के शपथग्रहण समारोह में शामिल होने के प्रति जिस तरह आमंत्रित देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने अनिच्छा दिखाई उससे तालिबान सरकार को यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि अफगानिस्तान के कुछ पड़ोसी देश अगर उसके साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उन्हें आतंकियों की बहुलता वाली सरकार से कोई गुरेज नहीं है । दरअसल उन देशों की असली मंशा तो अफगानिस्तान से केवल अपने आर्थिक और सामरिक हित साधना है।
तालिबान सरकार के गठन के बाद अभी तक ऐसे कोई संकेत नहीं मिले हैं जिन्हें देखकर यह माना जा सके कि उसे अतंर्राष्ट्रीय जगत में अपनी प्रतिष्ठा की चिंता सताने लगी है। वह समाज के किसी भी वर्ग के प्रति उदारता से पेश नहीं आना चाहता । महिलाओं के प्रति उसकी क्रूरताा के रोज नए नए किस्से सामने आ रहे हैं। तालिबान ने जबसे अफगानिस्तान पर कब्जा किया है तभी से आर्थिक गतिविधियां भी लगभग बंद पड़ी हैं। रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुओं का अभाव लोगों का जीवन दूभर कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया भर के देशों से अफगानिस्तान को जीवनोपयोगी वस्तुओं की सप्लाई करने की अपील की है। तालिबान ने जो सरकार बनाई है वह अंतरिम सरकार है‌। जब तक संसद के चुनाव नहीं होते तब तक स्थायी सरकार का गठन संभव नहीं है । अफगानिस्तान की स्थिति तभी सामान्य हो सकती है जबकि सत्ता की बागडोर स्थायी सरकार के पास हो। तालिबान को भी इस कड़वी हकीकत का अहसास हो जाना चाहिए कि बाहरी दुनिया से अंतरिम सरकार को ‌‌‌‌‌‌‌‌‌छिटपुट मदद‌ तो मिल सकती है परंतु बड़े पैमाने पर मदद के लिए वहां स्थायी सरकार जरूरी होना जरूरी है। तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद पंगु हो चुकी अर्थ-व्यवस्था व्यापक अंतरराष्ट्रीय मदद के बिना पटरी पर नहीं लौट सकती। अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत देबो‌राह लियोंस ने अंतरराष्ट्रीय जगत से मानवीय आधार पर अफगानिस्तान को मदद जारी रखने की अपील की है। संयुक्त राष्ट्र को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में देबोराह लियोंस ने जानकारी दी है कि अफगानिस्तान में इस समय जो‌ अस्थिरता है उसकी वजह से आर्थिक हालात बहुत खराब हो चुके हैं। अफगान मुद्रा के मूल्य में लगातार गिरावट आ रही है और खाने पीने की वस्तुएं आम आदमी की पहुंच के बाहर हो चुकी हैं। यही हाल पेट्रोल डीजल का है। कल-कारखानों और दफ्तरों में मजदूरों और कर्मचारियों का आना‌ तो शुरू हो चुका है परन्तु सवाल यह है कि उनके वेतन का पैसा कहां से आएगा। अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत का कहना है कि सरकार चलाने की योग्यता सिद्ध करने के लिए तालिबान को कुछ माह का समय देना उचित होगा । निश्चित रूप से संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत ने अंतरराष्ट्रीय जगत से यह मार्मिक अपील अफगान जनता के दुख दर्द को देखकर की है परंतु
तालिबान सरकर के पसीजे बिना वहां कुछ भी बदलना मुश्किल है।

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