के. विक्रम राव
दशकों बाद हो रहे कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव रूचिकर होगा। वर्ना विगत में हर बार यह सिर्फ ठठोली बनकर ही रह जाता था। पुतले मंच पर, तो डोर कहीं और। क्या सोनिया-कांग्रेस का "एक व्यक्ति एक पद" वाला नियम लागू हो जायेगा ? यही गौरतलब बात है। अर्थात यदि प्रत्याशी अशोकसिंह लक्षमणसिंह गहलोत नामांकन से पूर्व अथवा चुनाव के बाद राजस्थान का मुख्यमंत्री पद नहीं छोडं़े तो ? कांग्रेस संविधान में ऐसा नियम शुरू से रहा। पर अनुपालित नहीं हुआ। इसीलिये कांग्रेस के पांचवें चिंतन शिविर (शुक्रवार, 13 मई 2022) उदयपुर में इस नियम का कठोरता से निर्वहन करने का पुनीत संकल्प दोहराया है। राहुल गांधी ने भी इस कायदे पर दृढता जताई है। शायद उनकी पेशबंदी इसलिये भी की है क्योंकि यदि 2024 लोकसभा मतदान में कही उनका तुक्का लग गया और उस वक्त वे पार्टी मुखिया भी रहे तो कोई व्यवधान न उपजे!
यूं "एक पद एक व्यक्ति" के सर्वाधिक ईमानदार प्रणेता, प्रवर्तक, पालनहार प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे। तब (1949) राजर्षि पुरूषोत्तमदास टंडन बनाम आचार्य जेबी कृपलानी का चुनाव कांग्रेस अध्यक्ष पद हेतु हुआ था। नेहरू ने आचार्य कृपलानी का ऐलानिया तौर पर समर्थन किया था। मगर टंडन विजयी हुये। सरकारी समर्थक हारे। तब भी यह नियम था कि "एक व्यक्ति दो पदों" पर नहीं रह सकता।
नेहरू ने इस शर्त पर जोर दिया था। तभी यह संयोग था कि पड़ोसी पाकिस्तान नवनिर्वाचित वजीरे आजम नवाबजादा मिया लियाकत अली खां (करनाल वाले) मोहम्मद अली जिन्ना की मौत के कारण मुस्लिम लीग के सदर भी नामित हो गये। नेहरू ने उनकी भर्त्सना की थी कि एक नेता का दो पदों पर (सरकार तथा पार्टी) आसीन नहीं होना चाहिये। मतलब यहीं कि "एक व्यक्ति, एक पद" का सिद्धांत नेहरू के लिये पुनीत तथा अनुपालनीय था। मगर स्थिति बदली। टंडन ने नेहरू के विरोध के कारण त्यागपत्र दे दिया। बात 9 सितम्बर 1951 की है। कांस्टीटूशन क्लब भवन में कांग्रेस पार्टी की बैठक आहूत कर नेहरू ने स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष पद संभाला लिया। तब लियाकत अली खां इस विडंबना पर केवल मुस्करा दिये।
उसी दौर में वरिष्ठ कांग्रेसियों ने त्रिपुरी में सुभाष बोस को पार्टी तजने की पुरानी घटना याद की। बोस डा. पट्टाभि सीतारामय्या को हरा चुके थे। मगर तभी कुछ अप्रत्याशित हादसे क्रमवार हुए। सब समझते थे कि जब महात्मा गान्धी ने पट्टाभि सीतारमैय्या का साथ दिया है तब वे चुनाव आसानी से जीत जायेंगे। लेकिन वास्तव में सुभाष को चुनाव में 1580 मत और सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गान्धीजी के विरोध के बावजूद सुभाष बाबू 203 मतों से चुनाव जीत गये। चुनाव के नतीजे के साथ बात खत्म नहीं हुई। गान्धीजी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाष के तरीकों से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया।" डा. पट्टाभि मेरे ताऊ थे। स्वतंत्र भारत में मध्य प्रदेश के प्रथम राज्यपाल थे। कांग्रेस का त्रिपुरी अधिवेशन बड़ा तनावपूर्ण था क्योंकि तब तक पार्टी अध्यक्ष निर्विरोध निर्वाचित होता रहा। मोतीलाल नेहरू भी (1919-20 तथा 1928-29)। उनके तुरंत बाद (1930) उनकी इकलौते पुत्र जवाहरलाल नेहरू भी।
कांग्रेस के एक व्यक्ति के दो पदों पर रहने का एक वृत्तांत याद आया। पंडित कमलापति त्रिपाठी तब रेल मंत्री थे। लखनऊ में उनकी प्रेस कान्फ्रेंस हो रही थी ( अगस्त 1980)। टाइम्स आफ इंडिया के संवाददाता के रूप में मैंने एक प्रश्न पूछा था: "पंडित, जी, आपकी पार्टी के संविधान के अनुसार एक व्यक्ति एक ही पद पर रहेगा, मगर आपकी प्रधानमंत्री दो पदों पर कब्जा जमायें हैं।"त्रिपाठीजी से निजी आत्मीयता थी। उनके पुत्र मंगलापति लखनऊ विश्वविद्यालय में मेरे क्लासमेट रहे थे। चौधरी चरण सिंह की पुत्री सरोज सिंह भी। इसके अलावा इन रेलमंत्री को आजीवन मलाल रहा कि उन्हें पता ही नहीं था कि मेरी पत्नी (रेलवे डाक्टर के. सुधा राव) को मेरे जेल जाने के बाद बड़ौदा से बाहर तबादला कर दिया गया। उनके रेल राज्यमंत्री मोहम्मद शफी कुरैशी ने मेरी पत्नी को भारत-पाक सीमा पर कच्छ के गांधीधाम रेलवे अस्पताल भेज दिया था। मेरा परिवार तोड़ डाला था।
मेरे सवाल से साफ था कि मेरा निशाना प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर था जो तब पार्टी की मुखिया भी थीं। कमलापति जी पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष थे। त्रिपाठीजी का उत्तर बड़ा सटीक था। वे बोले: "अत्यावश्यक कारणों से संविधान संशोधित किया जा सकता है। विक्रम राव, मैं तुम्हारे बाप के साथ पत्रकारिता कर चुका हूं। समझते हो कि तुम मुझे फंसा लोगे ?" मेरे पिता स्वाधीनता सेनानी, सांसद श्री के. रामा राव "नेशनल हेराल्ड" के 1942 में संपादक रहे। बड़े सलीके से इस कांग्रेसी पत्रकार राजनेता ने "एक व्यक्ति, एक पद" वाला मसला दरकिनार कर दिया।
अब इतने सिलसिलेवार उतार चढ़ाव के बाद यदि राहुल गांधी (अभी भारत जोड़ने में व्यस्त) "एक व्यक्ति, एक पद" वाले नियम पर अड़े रहे तो वह कितना विश्वसनीय होगा ? आखिर वह हैं भी जवाहरलाल नेहरू की बेटी के पोते!! इंदिरा गांधी जीवन पर्यान्त दोनों पदों पर जमीं रहीं, सिवाय इसके कि जब वे हटाई गयीं या हारीं। कोई उनका मनोनीत कांग्रेसी अध्यक्ष रहा भी तो उसकी डोर उन्हीं के उंगलियों पर रही। कासु ब्रह्मानन्द रेड्डि, देवराज अर्स इत्यादि पार्टी मुखिया रहे। देवकांत बरूआ इंडिया इज इंदिरा के सूत्रधार थे। वे खदेड़े गये तो सीधे ब्रह्मपुत्र नदीतट पर स्वप्रदेश जाकर गिरे। एस. निपलिगप्पा भी ऐसे ही गये। इंदिरा गांधी ने उन्हें गपोड शंख बना डाला। अतः राजसत्ता का इतनी जघन्यता से दुरूपयोग करने वाली पितामही का वंशज संविधान का पालन करेगा ? आम कांग्रेसी इसी कुटिल वास्तविकता को कब समझेगा ?
K Vikram Rao
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