2 अक्टूबर : एक संत और एक किसान की याद में

News from Bhopal, Madhya Pradesh News, Heritage, Culture, Farmers, Community News, Awareness, Charity, Climate change, Welfare, NGO, Startup, Economy, Finance, Business summit, Investments, News photo, Breaking news, Exclusive image, Latest update, Coverage, Event highlight, Politics, Election, Politician, Campaign, Government, prativad news photo, top news photo, प्रतिवाद, समाचार, हिन्दी समाचार, फोटो समाचार, फोटो
Place: Bhopal                                                👤By: DD                                                                Views: 6104


के. विक्रम राव
मैं उन भाग्यशालियों में हूँ जिसने महात्मा गाँधी के चरण स्पर्श किये। बात 1946 के शुरुआत की है। कक्षा प्रथम में पढ़ता था। जेल से रिहा होकर पिताजी (स्व. श्री के. रामा राव, संस्थापक?संपादक नेशनल हेराल्ड) परिवार को वर्धा ले गये। जालिम गवर्नर मारिस हैलेट ने हेराल्ड पर जुर्माना ठोक कर उसे बंद ही करवा दिया था| चेयरमैन जवाहरलाल नेहरू भी पुनर्प्रकाशन में नाकाम रहे। सेवाग्राम में हमारा कुटुम्ब बजाज वाड़ी में रहा। गाँधीवादी जमनालाल बजाज का क्षेत्र था| एक दिन प्रातः टहलते हुए बापू के पास पिताजी हम सबको ले गये। हमने पैर छुए। बापू ने अपनी दन्तहीन मुस्कान से आशीर्वाद दिया। मौन का दिन था, अतः बोले नहीं। फिर युवा होने पर जेपी तथा लोहिया से बापू को मैंने और जाना।
जंगे आजादी के दौर में पत्रकारिता-विषयक बापू के आदर्श और मानदण्ड अत्यधिक कठोर थे। हिदायत थी कि झूठा मत छापो, वर्ना पत्रिका बंद कर दो। उसी दौर में हमारी बम्बई यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स ने बापू को अपना अध्यक्ष बनाने की पेशकश की थी। बापू की शर्त थी कि सत्य ही प्रकाशित करोगे। वे पत्रकार फिर लौटकर नहीं आये| उस वक्त भारत में चार ही संगठन थे : दिल्ली यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स, मद्रास यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स, बम्बई यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स तथा कलकत्ता में इंडियन जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन| इन सब ने मिलकर जंतर-मंतर पर 28 अक्टूबर 1950 को इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वोर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ) की स्थापना की थी।
मगर आज भी एक वेदना सालती रहती है कि उस अस्सी वर्षीय निहत्थे संत की हत्या करने वाला नाथू राम गोडसे जरूर कसाई रहा होगा। निर्मम, निर्दयी, जघन्य हत्यारा| उसके पाप से वज्र भी पिघला होगा। गोडसे के साथ फांसी पर चढ़ा नारायण आप्टे तो एक कदम आगे था| उसने 29 जनवरी 1948 की रात दिल्ली के वेश्यालय में बितायी थी| ऐसा आदर्श था ! नाथूराम ने अपना जीवन बीमा बड़ी राशि के लिए कराया था। लाभार्थी थी उसके अनुज गोपाल की पत्नी। गोडसे ने लन्दन-स्थित प्रिवी काउंसिल में सजा माफ़ी की अपील भी की थी, ख़ारिज हो गई थी।
प्रतिरोध के गाँधीवादी तरीके पर इमरजेंसी (1975-77) के दौरान तिहाड़ जेल में हम साथी लोग काफी बहस चलाते थे। प्राणहानि न हो तो विरोध जायज है। आखिर 1942 में जेपी और लोहिया भी तो तार काटने, पटरी उखाड़ने, ब्रिटिश संचार व्यवस्था को ध्वस्त करने, भूमिगत पत्रिका छापने तथा समान्तर रेडियो से संघर्ष चलाते थे।
भारत जिस परम्परा पर नाज करता है, मीडिया उसे सुर्खी देता रहा है। मानों कोई नई बात हो। सदियों से भारतीयों का जीवन सादा रहा, सोच ऊँची रही। मगर अब यह उलट गई, तो खबर बन गई। राष्ट्र का आदर्श हमेशा त्यागी रहा है, भोगी नहीं। तो अचानक साधारण बात सादगीवाली कैसे समाचार बन गई? सिलसिलेवार गौर करें।
सेवाग्राम (वार्धा) में आगन्तुकों और अध्यासियों से महात्मा गांधी पाखाना साफ कराते थे। इन लोगों में जवाहरलाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल आदि शामिल थे। सादगी का प्रथम सबक बापू सिखाते थे कि कोई भी काम तुच्छ अथवा हीन नहीं होता। इससे गरूर टूटता था। आडंबर मिटता था। नैतिक मूल्य दृढ़तर होते थे। जब दलित पुरोधा विदेशी पोशाक में राजसी ठाट से रहते थे, तो अधनंगे बापू दिल्ली की भंगी कालोनी और ईस्ट लन्दन की गरीब बस्ती में टिकते थे। हालांकि अमीर पोरबन्दर रियासत के बड़े दीवान कर्मचन्द गांधी के वे पुत्र थे और लन्दन से बैरिस्टरी पढ़ते वक्त सम्पन्न जीवन बिता चुके थे। सात दशकों में जननेता और नौकरशाह की नवधनाढ्य जैसी ऐय्याश जीवन शैली, राजकोश से निजी फिजूलखर्ची, उसकी लूट तो अलग, एक आम नजारा बन गया है।
इस नये राजनीतिक और प्रशासनिक फितूर पर गौर करने के पूर्व व्यवहारिक जीवन से जुड़े कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। निजी धन को कोई मनमानी ढंग से खर्च करे तो यह उसकी समस्या है। मगर जब सार्वजनिक कोश और बिना श्रम के अर्जित सम्पत्ति कोई लुटायें तो वह अपराधमूलक है। सादगी की परिधि निर्धारित करते समय कुछ शब्दों की परिभाषा कर लें। कंजूसी सादगी नहीं हो सकती। विश्व का सबसे अमीर व्यक्ति था हैदराबाद का निजाम मीर उस्मान अली खाँ। वह उपहार वसूलता था और पेबन्द लगी अचकन पहनता था। निजाम का जीवन सादगीपूर्ण कभी भी नहीं कहा जा सकता। वह कृपण था। खादी पहनना और रोज का खर्चा हजारों में करना, जो आप राजनेताओं का स्टाइल है, वह सादगी नहीं, ढोंग है। आवश्यक न हो तो खर्च न करना किफायत कहलाती है। गुजरात इस मानसिकता का सम्यक द्योतक है। अब इन कसौटियों पर आज चल रहे सादगी के अभियान के सिलसिले में कुछ पुराने प्रसंगों को याद कर लें।
तीसरी लोकसभा में कांग्रेस अर्थनीति पर चर्चा के दौरान सोशलिस्ट सदस्य राममनोहर लोहिया ने मुद्दा उठाया था कि आम भारतीय रोज मुश्किल से चवन्नी कमा पाता है जबकि प्रधानमंत्री के पालतू कुत्ते पर प्रतिदिन पच्चीस रूपये खर्च होते हैं। उनका प्रश्न था कि केवल चन्द शहरवासियों को अधिक धनी बनाने वाला नियोजन आयोग का लक्ष्य क्या उन करोड़ो निर्धन जन की उपेक्षा करना तथा अन्याय करना नहीं माना जाएगा? लोहिया का नवस्वतंत्र राष्ट्र के सत्ताधीशों पर आरोप था कि गांधी जी के सादगी के सिद्धांत की अत्येष्टि उन लोगों ने राजघाट में बापू के अन्तिम संस्कार के समय ही कर दी थी।
इन्दिरा गांधी को इसका एहसास हुआ जब वे दिल्ली हवाई अड्डे पर सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फार खाँ को लेने (सितम्बर 1969) पहुंची थी। बादशाह खान का कुल असबाब बस एक पोटली थी जिसे वे अपनी कांख मे दबाये जहाज से उतरे थे। इसमें सिर्फ एक जोड़ा पाजामा, कुर्ता और छोटा तौलिया था। बादशाह खान ने इन्कार कर दिया जब प्रधानमंत्री ने उस पोटली को खुद ढोने की पेशकश की। अपना काम बादशाह खान खुद करते थे।
उत्तर प्रदेश के महाबली मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त अपने इशारों पर घन्नाशाहों को नचाते थे। उनके एक फोन पर कांग्रेस पार्टी को करोड़ों रूपयों मिल जाते थे। वे खुद पुराने लखनऊ में संकरी सड़कवाले पान दरीबा मुहल्ले में बने अपने पुराने सेवाकुटीर नामक मकान से शासन करते थे। खादी की चड्डी और बनियान उनकी पोशाक थी। हाँ महिला मुलाकाती आ जाये तो गमछा ओढ़ लेते थे। भोजन में दो रोटी, साग और दाल होता था। निजी सम्पत्ति नहीं बनाई। सब कुछ मोतीलाल ट्रस्ट का था। गुप्ताजी के बाद आये मुख्य मंत्रियों की जीवन शैली लखनऊ में कोई गोपनीय बात नहीं है। अब तो बैंको की भांति नोट गिननेवाली मशीन शासकों के सरकारी आवास में लगी होती है। निजी घर के रखरखाव पर राजकोष से व्यय करना आम बात हो गई है। यहाँ पेरिस के उपनगरीय आवासीय कालोनी का एक किस्सा बता दूं। एक अमरीकी महिला पर्यटक ने एक बंग्ले में खुरपी चलाते एक अधेड से कहा कि यदि वह अमरीका चलकर उसके बगीचे में काम करे तो मोटा वेतन देगी। अमरीका में माली बड़े महंगे होते हैं, मुश्किल से मिलते हैं। महिला को जवाब देते उस व्यक्ति ने खुरपी चलाते हुए ही कहा, ?मदाम, यदि मैं फ्रान्स का राष्ट्रपति पुनर्निर्वाचित न हुआ तो आपके पास रोजी के लिए आऊंगा|
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को अक्सर अपना परिचय देना पड़ता था जब कोई सरकारी कारकून आता था। शास्त्री जी तो सरलता और सादगी के पर्याय थे। भारत में द्वितीय प्रधानमंत्री हुये लाल बहादुर शास्त्री। एक बार तिरुअनंतपुरम के कोवलम तट पर वे नहाकर, बालू पर विश्राम कर रहे थे। कलक्टर का चपरासी प्रधानमंत्री का संदेशा देने आया। उसने नाटे चड्डी?बनियाइनधारी से पूछा : "गृहमंत्री से मिलना है।" शास्त्री जी ने कहा : "पत्र मुझे दे दो।" चपरासी बोला : "नहीं, गृहमंत्री को देना है।" शास्त्री जी कमरे में गये धोती कुर्ता धारण कर, बाहर आये। वह चपरासी लगा गिड़गिड़ाने, दया याचना हेतु।
सीबीआई के इतिहास पर विहंगम दृष्टि डाले तो आपको ज्ञात होगा कि एक अप्रैल 1963 (विश्व?मूर्ख दिवस) पर स्व. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा सीबीआई?गठित हुयी थी तो यह सरकारी भ्रष्टाचार के विरोध में जंग की एक अपरिहार्यता तथा तात्कालिकता जैसी रही।
कल्पना कीजिए कि ताशकन्द में अकाल मृत्यु (1966) और लोकसभाई चुनाव (1996) में कांग्रेस की पराजय न होती तो लाल बहादुर शास्त्री और नरसिम्हा राव पार्टी की दिशा बदल देते। तब नेहरू परिवार बस एक याद मात्र रह जाता। इतिहास का मात्र एक फुटनोट।


K Vikram Rao
Mobile : 9415000909
E-mail: k.vikramrao@gmail.com

Related News

Global News


Settings
Demo Settings
Color OptionsColor schemes
Main Color Scheme     
Links Color     
Rating Stars Color     
BackgroundBackgorund textures
Background Texture          
Background Color     
Change WidthBoxed or Full-Width
Switch Page WidthFull-WidthBoxed-Width