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न गदा, न बाण और न खड्ग ! फिर भी बड़े योद्धा थे कृष्ण !!

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Place: भोपाल                                                👤By: prativad                                                                Views: 5327

के. विक्रम राव Twitter ID: Kvikram Rao

स्त्री-पुरुष के संबन्धों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें तो द्वापर युग में राधावल्ल्भ से जुड़े हुए कई कृष्ण और कृष्णा (द्रौपदी) के प्रकरण उसे बेहतरीन आयाम देते हैं। भले ही एक पत्नीव्रती मर्यादापुरूषोत्तम की तुलना में आठ पत्नियों के पति, राधा के प्रेमी, गोपिकाओं के सखा लीला पुरूषोत्तम का पाण्डव-पत्नी से नाता समझने के लिए साफ नीयत और ईमानदार सोच चाहिए। युगों से विकृतियां तो पनपाई गई हैं, मगर द्रौपदी को आदर्श नारी का रोल माडल कृष्ण ने ही दिया। हालांकि आज भी स्कूली बच्चों को यही बताया जाता है कि यमराज से भिड़कर सधवा बने रहनेवाली सावित्री और चित्तौड़ में जौहर देकर के प्राणोत्सर्ग करने वाली पत्नी ही भारतीय नारी के आदर्श हैं। यह सोच लीक पर घिसटनेवाली है, बदलनी चाहिए। कृष्णा के कृष्ण मित्र थे जिन्होंने उसके जुवारी पतियों के अशक्त हो जाने पर उसे बचाया। उसके अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए महाभारत रचा। उस अबला के भ्राता-पिता, पति-पुत्र से कहीं अधिक बढ़कर कृष्ण ने मदद की। ऐसे कई प्रसंग है जो कृष्ण को आज के परिवेश में अत्याधुनिक पुरुष के तौर पर पेश करते हैं। उन्हें न युग बांध सकता हैं। न कलम बींध सकती है।
विश्वरूपधारी होने के बावजूद कृष्ण के जीवन का सबसे दिलचस्प पक्ष यही है कि वे आम आदमी जैसे ही रहे। वैभवी राजा थे, किन्तु अकिंचन प्रजा (सुदामा) से परहेज नही किया। गोकुल के बाढ़पीड़ितों को गिरधारी ने ही राहत दी। (आज के राजनेता इसे सुनें)। कृष्ण अमर थे मगर दिखना नहीं चाहते थे। इसीलिए बहेलिये के तीर का स्वागत किया और जता दिया कि मृत्यु सारी गैरबराबरी मिटा देती है, वर्गजनित हो अथवा गुणवर्ण पर आधारित हो। यदि यह यथार्थ आज हस्तिनापुर में संसद को कब्जियाने पर पिले धरतीपुत्रों को, खासकर कृष्णवंशियों की, समझ में न आये, तो जरुर उनकी सोच खोटी है। असली कृष्णभक्त तो राजनीतिक होड़ में रहेगा, मगर निस्पृहता से।
इक्कीसवीं सदी के परिवेश में, स्वाधीन भारत में कृष्णनीति पर विचार करने के पूर्व उनके द्वापरयुगीय दो प्रसंग गौरतलब होंगे। यह इस सिलसिले में भी प्रासंगिक है, क्योंकि कृष्ण के प्राण तजने के दिन से ही कलयुग का आरम्भ हुआ था। प्रथम प्रकरण यह कि जमुना किनारे वाला अहीर का छोरा सुदूर पश्चिम के प्रभास (सरस्वती) नदी के तट पर (सोमनाथ के समीप) अग्नि समर्पित हो; तो उसी नदी के पास जन्मे काठियावाड़ के वैष्णव कर्मयोगी मोहनदास करमचंद गांधी का यमुना तट के राजघाट पर दाह-संस्कार हो। लोहिया ने इसे एक ऐतिहासिक संयोग कहा था। उत्तर तथा पश्चिम ने आपसी हिसाब चुकता किया था। दूसरी बात समकालीन है। द्वापर के बाद पहली बार (पोखरण में) परमाणु अस्त्र से लैस होकर महाराजा भरत का देश एक नये महाभारत की ओर चल निकला है। परिणाम कैसा होगा?
दोनों युगों को जोड़ते हुए द्वापर की घटनाओं को कलियुगी मानकों, परिभाषाओं और अन्दाजों से परखें। वर्ग और जाति में सामंजस्य कायम करने में कृष्ण का कार्य अपने किस्म का अनूठा ही था। अधुना हिंसाग्रस्त आदिवासी मणिपुर से चित्रांगदा का अपने यार अर्जुन से विवाह रचाकर कृष्ण ने युगों पूर्व उस पूर्वोत्तरीय अंचल को कुरू केन्द्र का भाग बनवाया। दो सभ्यताओं में समरसता बनाई। वभ्रुवाहन के शौर्य को अर्जुन ने हारकर जाना जैसे राम ने लव-कुश का लोहा माना था। मगर आज वही क्षत्रिय-प्रधान मणिपुर भारतीय गणराज्य से पृथक होने में संघर्षरत है। दिल्ली सरकार की अक्षमता के कारण ही। इस क्रम में अनार्य राजकुमारी हिडिम्बा का भीम से पाणिग्रहण और उसके आत्मज महाबली घटोत्कच का कुरूक्षेत्र में पाण्डु सेनापति बनाना कृष्ण की एक खास योजना के तहत बनी (समर) नीति थी। आज के आदिवासी-पिछड़ा समीकरण की भांति। इतिहासज्ञ जोर देकर यूनानी आक्रामक अलक्षेन्द्र (सिकन्दर) को महान बताते है क्योंकि उसने पंजाब के पराजित राजा पुरू को उसका राज वापस दे दिया था। कृष्ण का उदाहरण गुणात्मकता पर आधारित है कि दुष्ट शासकों का वध कर उन्होंने उनके राज्य उन्हीं के उत्तराधिकारियों को सौंप दिया। जरासंध की मौत पर उसके पुत्र युवराज सहदेव को मगध नरेश बनाया। मथुरा का राज कृष्ण ले सकते थे क्योंकि कंस को उन्होंने मारा था, किन्तु तब कैदी, अपदस्थ राजा उग्रसेन अपने न्यायोचित अधिकार से वंचित रह जाते। उग्रसेन मथुरा नरेश दोबारा बने। कृष्ण अन्यायी कभी नहीं थे।
आधुनिक संदर्भ में लोग राजनीति में कुटिलता, क्रूरता और प्रवंचना को महाभारत की घटनाओं के आधार पर सही ठहराने का नासमझ प्रयास करते है। अर्थात कृष्ण झूठ बोलते रहे, असमय वार कराते रहे, कभी-कभी फरेब भी करते रहे। मायने यही कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए साधन और माध्यम को सुचिता पर वे ध्यान नहीं देते थे। यथार्थ यह है कि महाभारत युद्ध मे कौरव सरीखे शत्रुओं से उन्हीं की रणनीति और नियमों से लड़ा जा सकता था। जब अन्नदोष के कारण दुर्योंधन की कृपा पर आश्रित गुरू द्रोण, पितामह भीष्म, सूर्यपुत्र कर्ण, कृपाचार्य आदि अन्याय के साथ जुड़े हों तो फिर उनका नीर-क्षीर विवेक ही समाप्त हो गया था। अश्वत्थामा नामक हाथी को मारकर द्रोणाचार्य को भ्रम में डालना, शंख फूंककर कुंजर शब्द का युधिष्ठिर द्वारा उच्चारण को दबा जाना, फिर धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य का सर काटना अपरिहार्य कारण थे। वरना धनुष लिये द्रोणाचार्य को स्वयं विष्णु नहीं हरा सकते थे।
शिखण्डी को ढाल के रूप में प्रयुक्त न कराते तो महाभारत के दसवें दिन भीष्म के रौद्ररूप से सारी पाण्डव सेना ही मटियामेट हो जाती। युधिष्ठिर को पितामह भीष्म के युद्ध शिविर में भेजकर उनको हराने का रहस्य जानने की बात केवल कृष्ण ही सोच सकते थे। फिर वीर कर्ण से अपने साथी अर्जुन को कैसे बचाया? उसके अमोध अस्त्र से तय था अर्जुन मर जाता। कृष्ण ने घटोत्कच की मदद ली। भतीजे की बलि देकर चाचा के प्राण बचे। यह स्पष्ट है कि यदि दुर्योधन बजाय यादव सेना के कृष्ण को कौरवों के लिए मांग लेता तो ? महाभारत ही अलग होता। पर वाह रे कृष्ण! अहंकारी दुर्योधन सिरहाने बैठा, विनम्र अर्जुन पैंताने पर। उठकर सीधे अर्जुन को ही पहले देखा और उसके साथ हो लिये। उसी अर्जुन को जयद्रथ-वध के पहले सूरज को चक्र से ढक कर बचा लिया। वरना सूर्यास्त के पूर्व अपने पुत्रहन्ता को मारने की कसम खाने वाले अर्जुन का अन्त उसी दिन हो जाता।
यूं तो श्रद्धालुजन कृष्ण के करोड़ नाम लाखों बार लेते है। मगर इस पार्थसारथी की समस्त जम्बूद्वीप को राष्ट्र-राज्य के रूप में पिरोने और स्थापित करने की भूमिका को, खास कर आज के खण्डित भारत और विभाजित अंचलों के परिवेश में, अधिक याद की जा सकती है। ऐसी ही छोटी-मोटी भूमिका अदा की थी लौहपुरूष सरदार वल्लभभाई झवेरदास पटेल ने। अंग्रेजों ने जब टूटे, दीमकग्रस्त भारत को छोड़ा था, तो उसे एक सार्वभौम गणतंत्र पटेल ने ही बनाया था। द्वापर युग में तो कृष्ण के सामने जनविरोधी अत्याचारियों ने बिहार (मगधपति जरासंध), उत्तर प्रदेश (मथुरापति कंस) और मध्य प्रदेशीय बुन्देलखण्ड (चेदिराज शिशुपाल) ने आतंक मचा दिया था। कुरूवंश का हस्तिनापुर सबल केन्द्र नहीं था। कृष्ण को पहली चुनौती मिली थी कि भारतवर्ष को फिर एक सूत्र में पिरोये।
कूटनीति और युद्ध-संरचना का लाजवाब सम्मिश्रण कर कृष्ण ने जो किया वह यदि पृथ्वीराज चौहान और राणा सांगा कर पाते तो भारत का इतिहास ही कुछ और होता। लक्ष्य प्राप्ति के लिए कंस का वध होता है तथा मथुरा राज्य स्वाधीन हो जाता है। राम-रावण युद्ध यदि प्रथम महासमर था तो कंसवध से कृष्ण ने द्वितीय महासमर का प्रारम्भ कर दिया था। धरती पर क्रूर शासक बोझ बन गये थे। (कुछ हिटलर, तोजो, मुसोलिनी की भांति)। कंस शीर्ष खलनायक था। दामाद के वध का बदला लेने में श्वशुर जरासंघ द्वारा आक्रमण स्वाभाविक कार्यवाही थी। जरासंध ने अपनी तेईस अक्षौहिणी सेना (आज की भारतीय सेना से तिगुनी) लेकर अठारह बार धावा बोला और हर बार पराजित होकर लौटा। फिर बाद में जैसे देशी राजाओं ने मुहम्मद गोरी और जहीरूद्दीन बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया था, मगध नरेश जरासंध ने कश्मीर नरेश कालयवन को मथुरा को ध्वस्त करने का निमंत्रण दिया। अपनी अपार म्लेच्छ और शक सेना को लेकर कालयवन ने चढ़ाई की। कृष्ण कमजोरी महसूस करते थे। किन्तु जिस तरकीब से कृष्ण ने मथुरा बचाया और षुत्र का नाश किया, वह राजकौशल का नायाब उदाहरण है। कृष्ण ने कालयवन को अपना पीछा करने के लिए उकसाया। भागते-भागते कृष्ण ने ढोलपुर के निकटस्थ पर्वतगुफा में शरण लिया। कालयवन भी वहां जा पहुंचा। कृष्ण ने अपना पीताम्बर वहां निन्द्रामग्न राजर्शि मुचुकुन्द को ओढ़ा दिया। उस मूर्ख कालयवन ने राजर्शि को कृष्ण समझकर झकझोरा। राजर्षि क्रुद्ध होकर उठे ओर कालयवन को घूरा। उन्हें वरदान था कि वे जिसे नाराजगी से देखेगे वह राख हो जाएगा। युक्ति से कृष्ण ने मुचुकुन्द द्वारा कालयवन को भस्म कराया।
फिर मगध नरेश जरासंघ की टांगे महाबली भीम से चिरवा कर विपरीत दिशा में फिकवा कर (ताकि फिर न जुड़ें) वध कराया। अब बचा चेदिराज शिशुपाल। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय भीष्म पितामह द्वारा अग्निपूजा में उसने कृष्ण को निन्यानबे गाली दी। जब सौंवी गाली दे चुका तो चक्र से चेदिराज का सर घड़ से अलग कर कृष्ण ने सम्पूर्ण उत्तर-पश्चिम भारत को मुक्त कराया। शिशुपाल की मां को कृष्ण ने दिया अपना वचन भी निभाया कि सौ अपराध तक क्षमा कर दिये जाएगे।
अब राष्ट्रनायक के रोल में कृष्ण पर उत्तरदायित्व और बढ़ गया था, क्योंकि गंगा किनारे (गढ़मुक्तेश्वर) पर बसा हस्तिनापुर अन्यायी और वंचकों के अधीन था। कौरव युवराज दुर्योधन भारत को न्यायप्रिय राष्ट्र बनने में बाधक था। पहले तो कृष्ण ने सहअस्तित्व के सिद्धांत के आधार पर गंगा से दूर यमुनातट पर इन्द्रप्रस्थ में ही कुरू पाण्डवों को स्थापित किया। मगर दुर्योधन ने बात बनने नहीं दी। तब कुरूक्षेत्र में फैसला हुआ और महाभारत रचा गया। धर्मराज युधिष्ठिर के अश्वमेघ से भारत फिर अखण्ड, सार्वभौम, प्रभुत्व सम्पन्न राष्ट्र-राज्य बना। कृष्ण इसके शिल्पी थे।
कृष्ण गरीबनवाज थे। उनको हम आज एक सखा (कामरेड) के रूप पूजकर अपार ढांढस और राहत पा सकते है। संदीपन आश्रम में अपने सहपाठी सुदामा के चिथड़े कपड़ों के बावजूद उस विप्र को द्वारका सिंहासन पर बैठाकर उनका आवभगत करना कोई विशाल दिलवाला ही कर सकेगा। बालसखा उद्धव बड़े विवेकशील प्रज्ञावान बनते थे। उन्हें गोकुल में गोपिकाओं को समझाने भेजा तो प्रेमरस का तीव्र असर पड़ते ही उद्धव की ज्ञान नली टूट गयी। वे भी प्रेम माधुर्य से सराबोर हो गये। नया अनुभव था, आह्लादकारी भी। हम सब भीलनी शबरी के जूठे मगर मीठे बेर का किस्सा बयान करते है। गौर कीजिये राजदूत कृष्ण सम्राट धृतराष्ट्र के कई-सितारा होटल के जैसे व्यंजनयुक्त भोजन को तजकर दासीपुत्र विदुर के घर मोटा कोदो खाते है। द्रौपदी के हाथ बासी साग को चटखारे लेकर चबाते है। यह सब दरिद्रनारायण को पुनर्प्रतिश्ठित कराने के उदेश्य कृष्ण से करते है। सर्वहारा का हमदर्द कृष्ण से बड़ा कोई आज तक हो पाया? जब देवराज इन्द्र ने गोकुलवासियों को भोग न चढ़ाने पर तंग किया और पानी बरसाकर बाढ़ ला दी तो जनवल्लभ कृष्ण ने साथियों की रक्षा की। अपनी नन्हीं सी उंगली पर पूरे गोवर्धन पर्वत को उठाया। खुद यंत्रणा सही। ऊपर वाले (इन्द्र) को झुकाया। नीचेवाले (गोकुलजन) को बचाया।
एक विवाद भी उठ खड़ा होता है कि कृष्ण हुये भी हैं, या यह बस एक कल्पना है। राममनोहर लोहिया, जो अपने को नास्तिक कहते थे, एक बार लखनऊ में बहस के दौरान बोले, ऐसा विवाद फ़िजूल हैं। जो व्यक्ति जनमन में युगों से रमा हो, छा गया हो, उसके अन्य पक्ष को देखो। अब यदि इस मीमांसा में पड़े तो पाण्डित्यपूर्ण शोध हो सकता है, पर लालित्यपूर्ण मनन नहीं। ऋग्वेद में अनुक्रमणी पद्धति में कृष्ण अंगीरस का उल्लेख आता है। छान्दोग्य उपनिषद में देवकीपुत्र कृष्ण को वेदाध्यनशील साधु बताया गया है। पुराणों में वसुदेव पुत्र वासुदेव बताया है। बौद्धघट जातक कथा में कृष्ण को मथुरा के राजपरिवार का सदस्य दर्शाया गया है। जैन धर्म के उत्तराध्यायन सूत्र में उन्हें एक क्षत्रिय राजकुमार कहा गया है। यूनान के राजदूत ने मथुरा में ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में ही कृष्ण के ईश्वर रूप में पूजा का वर्णन किया है। यात्री मेगस्थनीज ने कृष्ण गीता का विशद् उल्लेख किया है। हरिवंश पर्व में सम्पूर्ण कृष्ण कथा चित्रित हुई है। मगर साधारण जन की भांति कृष्ण को महाभारत और वैष्णव कवियों ने पेश किया है। यदि वे गोपिका वल्लभ होकर प्रेमरस में डूबे रहते है, तो यशोदानन्दन होकर माखन की चोरी करते है, रूक्मिणी और सत्याभामा तथा अपनी आठ पत्नियों में सर्वाधिक प्यार राधा से करते थे। राधा के आराध्य हैं जो सरोवर में खिलते कमल के नाल से अपनी याद उन्हें दिलाती है । इसी अवतार पुरूष को अहीरनें छाछ पर नचाती है। आज उनकी खास याद आती है।

K Vikram Rao
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