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सांस्कृतिक संरक्षण संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत का अनुपालन बेमतलब ऊहा-पोह ......

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Place: Bhopal                                                👤By: Digital Desk                                                                Views: 18527

विश्व के जितने भी संविधान है उनमें समाहित नीति निर्देशक सिद्धांतों में संस्कृति संरक्षण और संवर्द्धन का अधिकार भी प्रमुखता से उल्लेख मिलता है। भारतीय संविधान भी इसका अपवाद नहीं है। संविधान लोकतंत्र की भावना व्यक्त करते है तो राजनैतिक दलों की कल्पना अपने आप हो जाती है और उन्हें सांस्कृतिक चेतना संवर्द्धन का अधिकार मिल जाता है। लेकिन आज चलन यह हो गया कि एक राजनैतिक दल अपने अधिकारों की पुष्टि करते हुए दूसरे के अधिकार को मानने से इंकार करते है। देश में धर्म निरपेक्षता की धर्म-ध्वजा फहराने वाले इस मनमाने आचरण में पीछे नहीं है। कमोवेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को लक्षित दुष्प्रचार सियासी दलों की इसी हीन ग्रंथि का दंश भुगतने के लिए विवश है। हाल हीमें नरेन्द्र मोदी सरकार ने अयोध्या में रामायण संग्रहालय की स्थापना का फैसला लिया। इसके आजू-बाजू में ही उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी ने अयोध्या में रामायण पर थीम पार्क बनानें की घोषणा कर दी। राजनीति में तूफान आ गया। समाजवादी पार्टी और सरकार तो कुनबे की कलह में पहले से ही घिरी हुई है। सियासी दलों के निशाने पर भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी सरकार आ गयी। साम्प्रदायिकता का रंग दिया जाने लगा। ऐसा इसलिए कि संस्कृति से सरोकार उन्हें वोटों से अधिक घाटे का सौदा लग रहा है। ये नादान यह भूल जाते है कि यदि भारत भारत है तो इसका श्रेय राम-कृष्ण के सांस्कृतिक आचरण को है। सांस्कृतिक मूल से जुदा मुल्क आज अनाम हो चुके है।



महान समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया तुलसीकृत रामचरित्र मानस पर मुग्ध थे। वे कहते थे कि मानस के सभी पात्र अश्रुलोचन है। प्रचार को राजनैतिक शास्त्र मान चुके सियासी दलों ने राष्ट्रीय सांस्कृतिक संगठन (रा.स्व.सं) का जितना कीर्ति भंजन किया है, उसकी कीर्ति और विस्तार उतनी ही उत्तुंग उचाईयों तक पहुंची है। मजे की बात यह है कि सांस्कृतिक संगठन ने काम पर ध्यान केन्द्रित रखा और आलोचना की परवाह नहीं की। इसका खामियाजा भी भुगता है कि सांस्कृतिक संगठन (आरएसएस) के विषय में भ्रांति को जन्म मिला। उसका नाम घसीटते हुए धर्म निरपेक्षता के अलंबरदार सियासत करते चले गये। देर-सबेर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए संचार माध्यमों तक अपनी पहुंच बनायी है। हाल ही में संपन्न संपादकों का जमावड़ा इसी सोच का परिणाम है और समाज के सभी घटकों के बीच संगठन (आरएसएस) सांस्कृतिक अभ्युद्य के प्रयास सामने आये हैं जनता यह जानकार चकित है कि सांस्कृतिक चेतना विस्तारित करने का कार्य रा.स्व.सं. बिना राज्याश्रय के देश-विदेशों में अपनी दम पर कर रहा है और इन प्रयासों में धर्म, जाति-पांति का न तो भेदभाव है और न ही बंधन है। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में हर देशवासी उसका घटक है। संस्कृति से कटे हुए आर्थिक दर्शनविहीन ये दल देश में राजनैतिक सांस्कृतिक सौंदर्य की सृष्टि कर पाने में विफल तो रहे है, सार्थक बहस से भी जी चुराते फिरका परस्ती को शह देने तक सीमित होकर रह गये है।



अपने को आजादी के आंदोलन का प्रवक्ता घोषित करने वाले दल इस बात को स्वीकारने में संकोच करते है कि स्वतंत्रता संग्राम में सक्रियता से भाग लेने, कांगे्रस से नाता रखने वाले डाॅ. केशव बलराम हेडगेवार ने राजनैतिक स्वतंत्रता को लक्ष्य बनानें के साथ समाज में जातिविहीन समाज की चेतना जगाने के लिए सांस्कृतिक मूल्यों के सरंक्षण क आवश्यकता पर जोर दिया। यहीे से उन्हें 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की प्रेरणा मिली। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक बार आरएसएस के शिविर में वर्धा सेवा ग्राम में जाकर देखा कि सभी जाति के कार्यकर्ता पंक्तिबद्ध भोजन कर रहे है। अनुशासन प्रियता देखकर उन्होनें आरएसएस की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस दौर में संघ ने समाज सेवा, प्राकृतिक आपदा में मानव सेवा धर्म का निर्वाह कर अपनी प्रगति यात्रा इस तरह रखी कि देश-विदेश में इसके विस्तार से ईष्र्या उत्पन्न हुई। कहीं इसे समानांतर सज्जित बल आर्मड फोर्स कहकर तंज कसा गया तो कही पंडित नेहरू ने तल्ख टिप्पणी कर डाली कि इसे कुचल दिया जायेगा। लेकिन संघ की सेहत पर असर नहीं पड़ा। लगता है कि विरोध के प्रति सहिष्णुता इसके विस्तार में खाद का काम करता गया। स्वामी विवेकानंद ने लिखा था कि पक्षी को उड़ान भरने के लिए समान दो पंख चाहिए। यह संघ का मूल मंत्र बना और महिलाओं का राष्ट्र सेविका संगठन खड़ा हो गया। यातना का जो दौर संघ ने भोगा राष्ट्र सेविका समिति भी उसका अपवाद नहीं रही, लेकिन संघ की प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त कभी सराही नहीं गयी, इसे संगठन की दुःखद नियति ही कहा जा सकता है। संघ को लेकर एक भ्रांति तो यह फैलाना सियासी दलों का षड़यंत्र है कि केन्द्र में नरेन्द्र मोदी और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चैहान की सरकार बनने के बाद संघ अपना अजेंडा संघ के माध्यम से परोस रहा है। लेकिन जानकार जानते है कि किसी के भी यहां तक कि सरकार के भरोसे न रहो यह संघ की अपनी मूल सोच है। सरकार के भरोसे सरकारी काम-काज चल सकता है लेकिन धरातल पर क्रांति और सांस्कृतिक अभ्युदय नहीं हो सकता है। देश में कुरीतियों, विकृतियों को समाप्त करनें में हमारे महापुरूषों की ही भूमिका रही है। सामाजिक, सांस्कृतिक जमातों ने कुरीतियों से लोहा लिया है। नौ दशक बाद संघ ने अंगड़ाई ली है। सिर्फ गणवेश नहीं बदला बहुत कुछ बदला है। संघ की ख्याति सर्वग्राही, सर्वव्यापी सांस्कृतिक चेतना के ध्वजवाहक के रूप में हो चुकी है। समाज के हर वर्ग, हर अंचल, आदिवासी, अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में संघ ने पैठ की है और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अलख जगाया है। सबका साथ-सबका सांस्कृतिक विकास तुष्टीकरण किसी का नहीं यही ध्येय वाक्य रहा है और उसके विस्तार के प्रति विश्वसनीयता संघ और समुदायों के बीच सेतु बना है। संघ की शाखाएं अनुशासित संगठनों ने सभी तबकों में चेतना ओर सेवा कार्यों का विस्तार किया है। बिना रक्षा प्रशिक्षण के संघ ने सीमान्त प्रांतों पर भी निगाह रखी है और समकालीन सरकारों को चेताया है। कदाचित कम लोग ही जानते है कि 1962 में संघ की सीमा क्षेत्रों में रक्षा बलों की पूरक के रूप में रही भूमिका ने ही पं. नेहरू का हृदय परिवर्तन किया और संघ के स्वयंसेवकों को 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। पं. नेहरू आश्वस्त हो चुके थे कि संघ पर साम्प्रदायिकता का लेविल बनावटी और सियासी है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के करीबी लोगों को पता है कि 1971 में जब पाक ने भारत पर हमला किया और इंदिरा जी ने आर-पार करने का मन बनाया, तब उन्होनें फौजी कार्यवाही के पहले तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अटलबिहारी वाजपेयी को सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया और कहा कि संघ के शीर्ष से आश्वस्त करा दंे कि आर-पार की लड़ाई में संघ का समर्थन होगा और बांग्लादेश का गठन बिना किसी खून-खराबे के होगा। संघ ने तभी इंदिरा जी को दुर्गा कहकर राष्ट्रहित चिंतन और राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता का ऐतिहासिक सबूत दिया था। संघ पर साम्प्रदायिकता का आरोप थोथा है, यह प्रमाण इंदिरा जी ने देखा कि बांग्लादेश के उदय के साथ हजारों लाखों शरणार्थी आये-गये और कोने-कोने में शांति बनी रही। आज जो संघ और भाजपा पर असहिष्णुता का इल्जाम लगाते है वास्तव में वे अपनी सांस्कृतिक निरक्षरता का ही सबूत देते है। संघ की तुलना सिमी से करने वाले वास्तव में घोर तुष्टीकरण का सबूत देते है।



संघ के विषय में भ्रांति का एक कारण संघ का मौन व्रती, विस्तारजयी बना रहना रहा है। लेकिन समय के साथ पारदर्शिता के हित में वह कभी-कभी जन भ्रम निवारण के लिए अपनी पीठ थपथपाने के बजाय शालीनता से सूचना देने लगा है। संघ ने दुर्गम क्षेत्रों में तथा पिछले क्षेत्रों में ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए सरस्वती विद्या मंदिरांे की स्थापना की है। यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि इन स्कूलों में सेंतालीस हजार मुस्लिम बच्चे तालीम ले रहे है। दसवीं की परीक्षा में जो छात्र टाॅपर था, वह सरफराज हुसैन गुवाहाटी में सरस्वती शिशु मंदिर से विधा भारती में दीक्षित होकर माध्यमिक स्तर तक पहुंचा। विहम भारतीय के देशभर में 12364 विधालय है। इनमें ग्यारह हजार मुस्लिम छात्र शिक्षा पाते है। गीता पढ़ते है और गायत्री मंत्र भी जपते है। राष्ट्रीय सांस्कृतिक वाद उन्हें जोड़ता है। भारतीय संस्कार देने केलिए संस्कार केन्द्रों की स्थापना की गयी है। 270 आचार्य मुस्लिम है। हिन्दुत्व के इन संस्कार केन्द्रों में 110 ईसाई आचार्य भी संस्कार देने में जुटे है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों मेरठ, बुलंदशहर में संघ द्वारा संचालित स्कूलों में मुस्लिम छात्र बिना भेदभाव के संस्कारित हो रहे है। देशभर में संघ द्वारा संचालित स्कूलों में एक लाख 64 हजार आचार्य विद्या अध्ययन करते हुए भारतीय संस्कृति में रचना-पचना सिखा रहे है।



संघ को साम्प्रदायिक सिद्ध करनें के लिए और भाजपा को मजहबी जुनून पैदा करने वाला सियासी दल सिद्ध करने के लिए कांगे्रस और उसके सहयोगी दल अयोध्या राग छेड़ते है। लेकिन इतिहास गवाह है कि यह राग भाजपा या संघ ने नहीं पं. नेहरू और बाद में राजीव गांधी ने ही छेड़ा था। उन्होनें ही बाबरी मस्जिद का गेट खुलवाया ताला तुड़वाया और विवादित ढांचे के विध्वंस की जिम्मेवारी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और दीगर पर डालकर धर्म निरपेक्षता का बाना ओढ़ लिया। कांगे्रस और तथाकथित धर्म निरपेक्ष दलों ने लोकसभा चुनाव 2014 में गला फाड़कर दुष्प्रचार किया कि संघ समर्थित भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी की यदि दिल्ली की सत्ता में आवक हुई तो साम्प्रदायिक दंगे होंगे। अल्पसंख्यकों का सकून छिन जायेगा। लेकिन नरेन्द्र मोदी के ढ़ाई वर्षों के शासन में जिस तरह सबका साथ-सबका विकास मिशन शुरू हुआ, दुष्प्रचार करने और हौआ खड़ा करने वाले चुनावी मौसम ही असहिष्णुता का बेसुरा राग अलापते है, जो अरण्य रोदन बनकर रह जाता है। देश की जनता ने इनकी गलतबयानी का दंड इन्हें लोकसभा चुनाव 2014 में दे दिया है। कांग्रेस की हैसियत प्रतिपक्षी दल की भी नहीं रह गयी।



(लेखक - भरतचन्द्र नायक)

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