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असल मुद्रा के प्रचलन के मायने...... नीयत, नीति और नेता का नेकपन

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Place: Bhopal                                                👤By: Digital Desk                                                                Views: 18360



कालेधन पर 'सर्जिकल स्ट्राईक', सुखद पीड़ा का नस्तर



इतिहास बड़ा निर्दयी होता है। शासक और प्रशासक कितना भी महत्वाकांक्षी हो, लेकिन ऐसे शख्स कम ही अपवाद होते है जो समय, परिस्थिति से समझौता नहीं करते। उनके इरादे मजबूत होते है, और समाज-देश में आस्था उनका संबल होता है। आधुनिक काल के निर्माता और प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने गद्दी संभालते ही राजनैतिक, आर्थिक क्षेत्र में व्याप्त प्रदूषण को समाजवाद के रास्ते में रोढ़ा मारकर साफ-सुथरी सरकार देने का मंसूबा संजोया था। भारत में 1961 में आयकर कानून बनानें और बाद में सीबीआई के रूप मंे स्पेशल स्टेब्लिशमेंट एक्ट को परिष्कृत करने के पीछे उनका इरादा देश से भ्रष्टाचार के कदाचार को समाप्त करना था। देश में कालेधन के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अभियान जब वाद-विवाद और चर्चा का केन्द्र बना है, पं. नेहरू के जन्मदिन पर उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में एक सभा में उन्होनें जो कहा और पं. नेहरू का पुण्य स्मरण किया, उससे संकेत मिलता है कि नरेन्द्र मोदी इतिहास की समग्रता से पुनार्वृत्ति करनें के लिए कृत-संकल्प है। विपक्ष द्वारा उठाये जा रहे लेकिन, किन्तु, परन्तु से अविचलित रहकर उन्होनें आर्थिक क्षेत्र में जो स्ट्राईक किया है कालेधन की मुहिम नोट बंदी आर्थिक सर्जिकल स्ट्राईक के रूप में प्रशंसा और विपक्षी मंच पर आलोचना का विषय जरूर बन गयी है। लेकिन लंबी लाइन में पसीना बहाते नये नोटों के इंतजार में खड़ा देश का आम आदमी नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा किये बिना नहीं रहता। लंबी लाइन में परेशान हो रहे उपभोक्ताओं की सेवा में ठंडा पानी, चाय परोसते युवक मानों इस मुहिम के सही प्रशंसक बन चुके है।



बड़े नोटों के प्रचनल पर लगायी गयी रोक से आम जनता की परेशानी, बाजार में आयी घबराहट के बावजूद जनता में एक आत्मविश्वास जगता दिखायी दे रहा है और वह इस बात से कतई इत्तेफाक नहीं रखता कि नरेन्द्र मोदी ने देश पर आर्थिक आपातकाल थोप दिया है। नोट बंदी का नया आयाम सिर्फ सामाजिक आर्थिक सिस्टम का परिष्कार ही नहीं है अपितु राजनैतिक क्षेत्र में नयी सरंचना का संकेत भी है। आजादी के बाद चुनाव आयोग ने लंबी बहस की और चुनाव के खर्चीले होने पर सवाल भी उठाया। माना गया कि चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल से निर्वाचन की शुचिता दाखिल हुई है। लेकिन मंचीय चिंता व्यक्त करने वाले राजनैतिक दलों की भूमिका एक तटस्थ मौन दर्शक से ज्यादा नहीं रही। शुचिता लाने के लिए उन्होनें कोई प्रयास नहीं किया। 500 और 1000 रू. के बड़े नोटों के प्रचलन पर लगी रोक से लाखों करोड़ रूपया रखने वाले कालाधन धारियों की चिंता का कोई ठिकाना नहीं रहा। राजनैतिक दलों ने आगामी विधानसभा चुनाव के लिए जो बड़े नोटों का अंबार बनाकर रखा था, उनकी सांसे थम गयी और उन्होनें नरेन्द्र मोदी पर निशाना तान दिया है। यहां तक कि देश के सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटा दिया। लेेकिन सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने भी उन्हें निराश कर दिया और इस कदम की नेक नीयति पर अपनी मोहर लगा दी। अलबत्ता, न्यायालय ने सुझाया कि आम आदमी जो रोज कुआं खोदता है और पानी पीता है, उसे किल्लत न हो। इसका केन्द्र को ध्यान रखना होगा। पुराने बड़े नोटों, नकली मुद्रा के खारिज होने के बाद नये नोटों को प्रचलन में लाने का गंभीर दायित्व केन्द्र सरकार को सौंपा है। केन्द्र सरकार भी जनता के प्रति संवेदनशील है। 8-9 नवंबर 2016 की मध्यरात्रि से अचानक बड़े नोटों पर लगी पाबंदी से जनता हैरान है, लेकिन एनडीए सरकार का यह तर्क भी मायने रखता है कि यदि इसकी पूर्व सूचना दी जाती तो उद्देश्य ही पराजित हो जाता। इस आकस्मिक् नोट बंदी में जनता के सब्र का सबसे बड़ा कारण इस पाबंदी से आतंकवाद, तस्करी और भ्रष्टाचार का मेरूदंड झुक जाने से हुई सुखद अनुभूति है। मेहनत मशक्कत कर पेट पालने वाले दिन भर की मजदूरी खोकर अपनी गाढ़ी कमाई के नोट बदलने के लिए लंबी कतार में इंतजार करते हुए भी नरेन्द्र मोदी के साहसिक कदम के दीवाने हो गये है। उनका मानना है कि जहां नोटों का अंबार रद्दी में तब्दील हो गया है, वहीं अमीर और गरीब एक पंक्ति में आ गये है। नरेन्द्र मोदी ने 50 दिनों में स्थिति सामान्य होने की दिलासा दी है। भारतीय जनता पार्टी के नेता और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान का यह कथन मौजू है कि इस कदम ने श्री सत्यनारायण भगवान की कथा में आये किरदार वणिक व्यापारी जैसी हालत उन रईसों की कर दी है,



जिन्होनें केन्द्र सरकार की तमाम चेतावनियों पर यह दर्शाया कि उनके पास कोई ब्लैक मनी (कालधन) नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने जखीराबाजों को तथास्तु कहकर उसी अंजाम पर पहुंचा दिया। ब्लैकमनी का अंबार लतम्-पत्ताम् में नोटों का जखीरा बदल गया है। आर्थिक विशेषज्ञों की राय है कि कालाधन अर्थव्यवस्था में घुन बन रहा था। इससे जहां भ्रष्टाचार का पोषण होता था, आतंकवादियों के स्लीपर सेल पैदा होकर सरसब्ज हो रहे थे। वे धीरे-धीरे कुपोषण का शिकार होकर मृतपाय होंगे। नक्सलियों की कमर टूट चुकी है, क्योंकि वे तो धन एंेठकर जमीन में छिपाते आ रहे है। जरूरत पड़ने पर हथियार खरीद लेते थे। हवाला पर लगाम लगाने के साथ मादक द्रव्यों की तस्करी करने वाले भी हैरान है। उनका दावा है कि बड़े नोट तर्कसंगत कारणों पर बदले जाने और मौजूदा खातों में जमा होने से काली मुद्रा प्रचलन से बाहर हो रही है। और जो पूंजी सुप्त थी, वह बैंकों के माध्यम से विकास और उत्पादनशील प्रयोजनों के काम आयेगी। इससे असली मुद्रा का परिमाण प्रचलन में मर्यादित होने से ईएमआई (ब्याज दर) घटेगी। केन्द्र सरकार की पावंदी का अनुकूल प्रभाव देखने में आया है। अनुमान है कि 9 नवंबर से प्रथम चरण में चार दिनों में ही बैंको में एक लाख करोड़ रू0 से अधिक का ट्रांजेक्शन (लेन-देन) हुआ। इससे बैंको की लिक्विडिटी में इजाफा हुआ है, एटीएम में नोटों का आकार-प्रकार बदलने से उनकी क्षमता घटने से हो रही उपभोक्ता की परेशानी के प्रति सरकार की संवेदनशीलता का ही नतीजा है कि केन्द्र ने पोस्ट आॅफिस को भी इस काम में जुटा दिया है। ग्रामीण केन्द्र भी सक्रिय किये जा चुके है। निश्चित रूप से केन्द्र के इस बहुप्रतीक्षित कदम से जनता हलाकान हुई है, लेकिन जनता को भरोसा है कि इससे मुल्क को लगभग 3 लाख करोड़ रू. का लाभ हो सकता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में 1000 और 500 रू. की मुद्रा के रूप में 14 लाख करोड़ रू. के नोट है, जिसमें 20 प्रतिशत कालाधन है। यह राशि इस मुहिम में लौटने से रही। यह सरकारी खजाने की निधि में दर्ज हो जायेगी। आरबीआई द्वारा जारी हर नोट सरकार की लायबिलिटी होती है। उन नोटों की देयता स्वयं समाप्त हो जायेगी। राजनैतिक दल भले ही नोट बंदी का विरोध कर रहे हों, लेकिन उद्योग जगत और आम आदमी ने इसे आर्थिक क्षेत्र में सर्जिकल स्ट्राईक बताकर इस कदम का जोरदार स्वागत किया है। एक बात यह भी कि नकद के रूप में भारत में इसका जीडीपी में हिस्सा 12 प्रतिशत है यानि नकदी में लेन-देन चलता है। जबकि दूसरे देशों में नकदी का अंश 3 से 4 प्रतिशत ही रहता है। इस तरह प्रधानमंत्री ने बड़े नोट बंद करके जो आर्थिक शुद्धीकरण की क्रांति की है, उस पर 2014 के पहले भी तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह सरकार ने विचार किया था। लेकिन न तो वे जनता के चुने हुए प्रधानमंत्री थे और न कांगे्रस ऐसा करने का साहस करने के लिए तैयार थी। कारण जो भी रहा हो।



नोट बंदी के कई आयाम है। राष्ट्र हित में उन पर बहस की गंुजाईश है, लेकिन उस पर बहस करने के बजाय कुछ लोग अफवाहों को पंख देकर जनता को भ्रमित करनें में जुटे है। 100 रू. और 50 रू. के नोट बंद किये जाने की अफवाह को केन्द्र सरकार ने शरारतपूर्ण बताकर खारिज कर दिया है। विधि आयोग और चुनाव आयोग चुनाव में कालेधन के दुरूपयोग पर लंबे समय से चिंता व्यक्त करते आ रहे है। मंचों पर राजनैतिक दल भी इसकी पेरोकारी करनें में पीछे नहीं रहे। लेकिन इन दलों ने इस पर सहमति बनानें का साहस नहीं दिखाया। इनकी नीयत में हमेशा खोट देखी गयी है। लेकिन नोट बंदी ने देश में हो रहे उपचुनावों में इसका सबूत दे दिया है कि नोट बंदी से नकली नोटों का प्रचलन बंद होने से चुनाव में कालेधन पर रोक लगाने का भरोसा किया जा सकता है। नोट बंदी भ्रष्टाचारियों के लिए सबक है, लेकिन इस अभियान में गेहूं के साथ घुन पिस रहा है, यह एक मजबूरी सरकार के सामने आ रही है। अर्थव्यवस्था के शु़िद्धकरण के अनुष्ठान में आम आदमी को सजा भुगतना राष्ट्रीय अनुष्ठान में आम आदमी की सात्विक आहुति है। देश की उभरती अर्थव्यवस्था का इसे परीक्षाकाल भीमानकर संतोष करना पड़ेगा। इसके लिए यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा और एनडीए सरकार की सराहना की जाये तो यह न तो अतिश्योक्ति होगी और न इसे प्रशस्ति गान माना जाना चाहिए।



शीतकालीन संसद सत्र में विपक्ष नोटबंदी को लेकर केन्द्र सरकार को घेरने के लिए एकजुटता का संदेश दे चुका है। बुद्धिजीवी भी चाहते है कि लोकतंत्र में विरोध हो और रचनात्मक विरोध और बहस से सिस्टम की कमियां दूर करनें में मदद मिलती है। लेकिन विरोध में भी संवेदना आवश्यक है। विपक्ष की आक्रामकता को देखते हुए जनता चकित है। लेकिन प्रधानमंत्री और एनडीए सरकार विपक्ष की लामबंदी पर हैरत में नहीं है। एनडीए ने कहा है कि उसकी नीति और नीयत साफ है। हर मुद्दे पर किसी भी दृष्टिकोण से बहस के लिए केन्द्र सरकार तैयार है। उसे खतरा इसलिए नहीं है कि क्योंकि वह बहुमत में है। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आम आदमी के समर्थन का बल होने से उनका हौंसला बुलंद है।





(लेखक - भरतचन्द्र नायक)

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