गुरु गोविन्द सिंह, सभ्यता और संस्कृति के प्रतीकपुरुष

News from Bhopal, Madhya Pradesh News, Heritage, Culture, Farmers, Community News, Awareness, Charity, Climate change, Welfare, NGO, Startup, Economy, Finance, Business summit, Investments, News photo, Breaking news, Exclusive image, Latest update, Coverage, Event highlight, Politics, Election, Politician, Campaign, Government, prativad news photo, top news photo, प्रतिवाद, समाचार, हिन्दी समाचार, फोटो समाचार, फोटो
Place: Bhopal                                                👤By: DD                                                                Views: 18359

भारत का सौभाग्य है कि यहां की रत्नगर्भा माटी में महापुरुषों को पैदा करने की शोहरत प्राप्त है। जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कर्तृत्व से न सिर्फ स्वयं को प्रतिष्ठित किया वरन् उनके अवतरण से समग्र विश्व मानवता धन्य हुई है। इसी संतपुरुषों, गुरुओं एवं महामनीषियों की शृृंखला में एक महापुरुष हैं गुरु गोविन्द सिंह। जिनकी दुनिया के महान् तपस्वी, महान् कवि, महान् योद्धा, महान् संत सिपाही साहिब आदि स्वरूपों में पहचान होती है। जिन्होंने कर्तृत्ववाद का संदेश देकर औरों के भरोसे जीने वालों को स्वयं महल की नींव खोद ऊंचाई देने की बात सिखाई। भाग्य की रेखाएं स्वयं निर्मित करने की जागृत प्रेरणा दी। स्वयं की अनन्त शक्तियों पर भरोसा और आस्था जागृत की। सभ्यता और संस्कृति के वे प्रतीकपुरुष है। जिन्होंने एक नया जीवन-दर्शन दिया, जीने की कला सिखलाई। जिनको बहुत ही श्रद्धा व प्यार से कलगीयां, सरबंस दानी, नीले वाला, बाला प्रीतम, दशमेश पिता आदि नामों से पुकारा जाता है।



निर्भीकता, साहस एवं तत्परता के गुणों से युक्त श्री गुरु गोविन्द सिंहजी का जन्म संवत् 1723 विक्रम की पौष सुदी सप्तमी अर्थात 22 दिसम्बर सन् 1666 में हुआ। उनके पिता गुरु तेगबहादुर उस समय अपनी पत्नी गुजरी तथा कुछ शिष्यों के साथ पूर्वी भारत की यात्रा पर थे। अपनी गर्भवती पत्नी और कुछ शिष्यों को पटना छोड़कर वे असम रवाना हो गये थे। वहीं उन्हें पुत्र प्राप्ति का शुभ समाचार मिला। बालक गोविन्द सिंह के जीवन के प्रारंभिक 6 वर्ष पटना में ही बीते। अपने पिता के बलिदान के समय गुरु गोविन्द सिंह की आयु मात्र 9 वर्ष की थी। इतने कम उम्र में गुरु पद पर आसीन होकर उन्होंने गुरु पद को अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से और भी गौरवान्वित किया। शासक होकर भी उनकी नजर में सत्ता से ऊंचा समाज एवं मानवता का हित सर्वोपरि था। यूं लगता है वे जीवन-दर्शन के पुरोधा बन कर आए थे। उनका अथ से इति तक का पुरा सफर पुरुषार्थ एवं शौर्य की प्रेरणा है। वे सम्राट भी थे और संन्यासी भी। आज उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कर्तृत्व सिख इतिहास का एक अमिट आलेख बन चुका है। उन्हें हम तमस से ज्योति की ओर एक यात्रा एवं मानवता के अभ्युदय के सूर्योदय के रूप में देखते हैं।



गुरु गोविन्द सिंह बचपन से ही बहुत पराक्रमी व प्रसन्नचित व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें सिपाहियों का खेल खेलना बहुत पसंद था। बालक गोविन्द बचपन में ही जितने बुद्धिमान थे उतने ही अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए किसी से भी लोहा लेने में पीछे नहीं हटते थे। वे एक कुशल संगठक थे। दूर-दूर तक फैले हुए सिख समुदाय को 'हुक्मनामे' भेजकर, उनसे धन और अस्त्र-शस्त्र का संग्रह उन्होंने किया था। एक छोटी-सी सेना एकत्र की और युद्ध नीति में उन्हें कुशल बनाया। उन्होंने सुदूर प्रदेशों से आये कवियों को अपने यहाँ आश्रय दिया। यद्यपि उन्हें बचपन में अपने पिता श्री गुरु तेगबहादुरजी से दूर ही रहना पड़ा था, तथापि तेगबहादुरजी ने उनकी शिक्षा का सुव्यवस्थित प्रबंध किया था। साहेबचंद खत्रीजी से उन्होंने संस्कृत एवं हिन्दी भाषा सीखी और काजी पीर मुहम्मदजी से उन्होंने फारसी भाषा की शिक्षा ली। कश्मीरी पंडित कृपारामजी ने उन्हें संस्कृत भाषा तथा गुरुमुखी लिपि में लेखन, इतिहास आदि विषयों के ज्ञान के साथ उन्हें तलवार, बंदूक तथा अन्य शस्त्र चलाने व घुड़सवारी की भी शिक्षा दी थी। श्री गोविन्द सिंहजी के हस्ताक्षर अत्यंत सुन्दर थे। वे चित्रकला में पारंगत थे। सिराद-एक प्रकार का तंतुवाद्य, मृदंग और छोटा तबला बजाने में वे अत्यंत कुशल थे। उनके काव्य में ध्वनि नाद और ताल का सुंदर संगम हुआ है। इस तरह गुरु गोविन्द सिंह कला, संगीत, संस्कृति एवं साहित्यप्रेमी थे।



यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।



जैसाकि खुद गुरु गोबिंद सिंह ने कहा था, कि जब-जब अत्याचार बढ़ता है, तब-तब भगवान मानव देह का धारण कर पीड़ितों व शोषितों के दुख हरने के लिए आते हैं। औरंगजेब के अत्याचार चरम सीमा पर थे। दिल्ली का शासक हिन्दू धर्म तथा संस्कृति को समाप्त कर देना चाहता था। हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया गया साथ ही हिन्दुओं को शस्त्र धारण करने पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया था। ऐसे समय में कश्मीर प्रांत से पाँच सौ ब्राह्मणों का एक जत्था गुरु तेगबहादुरजी के पास पहुँचा। पंडित कृपाराम इस दल के मुखिया थे। कश्मीर में हिन्दुओं पर जो अत्याचार हो रहे थे, उनसे मुक्ति पाने के लिए वे गुरुजी की सहानुभूति व मार्गदर्शन प्राप्ति के उद्देश्य से आये थे। गुरु तेगबहादुर उन दुःखीजनों की समस्या सुन चिंतित हुए। बालक गोविन्द ने सहज एवं साहस भाव से इस्लाम धर्म स्वीकार न करने की बात कही। बालक के इन निर्भीक व स्पष्ट वचनों को सुनकर गुरु तेगबहादुर का हृदय गद्गद् हो गया। उन्हें इस समस्या का समाधान मिल गया। उन्होंने कश्मीरी पंडितों से कहा-"आप औरंगजेब को संदेश भिजवा दें कि यदि गुरु तेगबहादुर इस्लाम स्वीकार लेंगे, तो हम सभी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे" और फिर दिल्ली में गुरुजी का अमर बलिदान हुआ जो हिन्दू धर्म की रक्षा के महान अध्याय के रूप में भारतीय इतिहास में अंकित हो गया।



भारत में फैली दहशत, डर और जनता का हारा हुआ मनोबल देखकर गुरुजी ने कहा "मैं एक ऐसे पंथ का सृजन करूँगा जो सारे विश्व में विलक्षण होगा। जिससे मेरे शिष्य संसार के हजारों-लाखों लोगों में भी पहली नजर में ही पहचाने जा सकें। जैसे हिरनों के झुंड में शेर और बगुलों के झुंड में हंस। वह केवल बाहर से अलग न दिखे बल्कि आंतरिक रूप में भी ऊँचे और सच्चे विचारों वाला हो।



इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर गुरु गोविन्द सिंहजी ने सन् 1699 की बैसाखी वाले दिन जो दृश्य आनंदपुर साहिब की धरती पर दिखाया, उसका अंदाजा कोई भी नहीं लगा सकता था। अपने आदर्शों और सिद्धांतों को अंतिम और सम्पूर्ण स्वरूप देने के लिये गुरुजी ने एक बहुत बड़ा दीवान सजाया। सम्पूर्ण देश से हजारों लोग इकट्ठे हुये। चारों तरफ खुशी का वातावरण था। इसी दिन गुरुजी ने खालसा पंथ की स्थापना की और इस पंथ में "सिंह" उपनाम लगाने की परम्परा की शुरुआत की तथा इसके साथ ही एक नया नारा भी लगाया था- 'वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतेह'। यह नारा आज सिख धर्म का प्रसिद्ध नारा बन गया हैं। जिसका प्रयोग सिख धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति प्रत्येक कार्य को आरम्भ करने से पहले करते हैं। गुरुगोविन्द सिंह ने 'खालसा' को 'गुरु' का स्थान दिया और 'गुरु' को 'खालसा' का। गुरु ने उनके साथ बैठकर भोजन किया। उन पांचों को जो अधिकार उन्होंने दिये, उनसे अधिक कोई भी अधिकार अपने लिए नहीं रखे। जो प्रतिज्ञाएं उनसे कराईं, वे स्वयं भी की। इस प्रकार गुरुजी ने अपने पूर्व की नौ पीढ़ियों के सिख समुदाय को 'खालसा' में परिवर्तित किया। तभी से गुरु ग्रंथ साहिब को ही गुरु का अंतिम स्वरूप माना जाता है तथा उन्हें गुरु के रूप में पूजा जाता हैं। ईश्वर के प्रति निश्चल प्रेम ही सर्वोपरि है, अतः तीर्थ, दान, दया, तप और संयम का गुण जिसमें है, जिसके हृदय में पूर्ण ज्योति का प्रकाश है वह पवित्र व्यक्ति ही 'खालसा' है। ऊंच, नीच, जात-पात का भेद नष्ट कर, सबके प्रति उन्होंने समानता की दृष्टि लाने की घोषणा की। यह धर्म की वह आदर्श आचार-संहिता है, जिसमें सर्वोदय- सबका अभ्युदय, सबका विकास निहित है। यह मनुष्यता का मंत्र है, उन्नति का तंत्र है। सर्वकल्याणकारी एवं सर्वहितकारी ध्येय को सामने रखकर इसने धार्मिकता को एक नई पहचान दी है।



गुरु गोबिंद सिंहजी एक साहसी योद्धा के साथ-साथ एक अच्छे कवि भी थे। इन्होंने बेअंत वाणी के नाम से एक काव्य ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ की रचना करने का गोविन्दजी का मुख्य उद्देश्य पंडितों, योगियों तथा संतों के मन को एकाग्र करना था। इनके पिता श्री गुरु तेग बहादुरजी ने तथा इन्हांेने मुगल शासकों के विरुद्ध काफी युद्ध लड़े थे। जिन युद्धों में इनके पिता जी शहीद हो गये थे। श्री तेगबहादुरजी के शहीद होने के बाद ही सन् 1699 में गुरु गोविन्द सिंहजी को दशवें गुरु का दर्जा दिया गया था। गुरु गोविन्द सिंहजी ने युद्ध लड़ने के लिए कुछ अनिवार्य ककार धारण करने की घोषणा भी की थी। सिख धर्म के ये पांच क-कार हंै- केश, कडा, कंघा, कच्छा और कटार। ये शौर्य, शुचिता तथा अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के संकल्प के प्रतीक है।



इस प्रकार गुरु गोविन्द सिंहजी का जीवन एक कर्मवीर की तरह था। भगवान श्रीकृष्ण की तरह उन्होंने भी समय को अच्छी तरह परखा और तदनुसार कार्य आरम्भ किया। उनकी प्रमुख शिक्षाओं में ब्रह्मचर्य, नशामुक्त जीवन, युद्ध-विद्या, सदा शस्त्र पास रखने और हिम्मत न हारने की शिक्षाएँ मुख्य हैं। उनकी इच्छा थी कि प्रत्येक भारतवासी सिंह की तरह एक प्रबल प्रतापी जाति में परिणत हो जाये और भारत का उद्धार करें। गुरुजी की सभी शिक्षाओं को यदि आज देश का प्रत्येक नागरिक अपने जीवन में उतार ले तो देश का कायाकल्प हो जाए तथा अनेक समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो सकता है। इस वर्ष गुरु गोबिंद सिंहजी की 350वीं जयंती 5 जनवरी को मनायी जा रही है। बिहार सरकार ने इसके व्यापक प्रबन्ध किये हैं और देश-दुनिया के श्रद्धालुओं को आमंत्रित किया गया है। पटना के इतिहास में संभवतः यह पहला इतना बड़ा और विलक्षण धार्मिक अनुष्ठान होगा। गुरु गोविन्द सिंह जैसे महापुरुष इस धरती पर आये जिन्होंने सबको बदल देने का दंभ तो नहीं भरा पर अपने जीवन के साहस एवं शौर्य से डर एवं दहशत की जिन्दगी को विराम दिया। काश! आज हम ऐसे महापुरुषों के जीवन को अपने जीवन में जीवन्त बना पाते और जब अपने आपसे पूछते-'अन्धेरे और आतंक की उम्र कितनी?' तो शायद हमारा उत्तर होता-'जागने में समय लगे उतनी।'







(ललित गर्ग)

Related News

Global News