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उपभोक्ता चेतना का संवाहक बना बाजारवाद...

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Place: Bhopal                                                👤By: प्रतिवाद                                                                Views: 18492



- भरतचन्द्र नायक

इतिहास और परंपराओं में जीवन का सत्व छिपा होता है, यह सबक की चीज है। इसमें लोकनायक के नायकत्व का स्थान आचार, विचार, व्यवहार भविष्य के लिए सीख देता है। लेकिन जब लोकनायक का स्थान बाजारवाद महानायक का मुखौटा लगाकर ले लेता है तो सुधार, स्थिरता, परंपरा की प्रक्रिया स्थगित हो जाती है और हम महानायक के साथ कदम बढ़ाकर आत्ममुग्ध होकर बाजारवाद की गिरफ्त में आ जाते है। लोकनायक और महानायक की इस स्पर्धा में हमें महानायक भाता है। इसका फर्क समझने के लिए लोकनायक जयप्रकाश और महानायक अमिताभ बच्चन प्रतीक बन चुके है। दोनों परिवर्तन के संवाहक है। लेकिन चलन में आज महानायक है, जो उपभोक्ता वस्तुओं की छवि ढ़ो रहा है। चाहे फिल्मी अभिनेता होे, क्रीडागंन में खिलाड़ी हो, इनके नाम से उपभोक्ता ललचा जाता है और उपभोक्ता चाहे-अनचाहे उत्पाद अपनी झोली में भरता है, जेब खाली करता है। खाद्य पेय वस्तुओं के गुण-अवगुण का अनुसंधान करने के बजाय हम अपनी सेहत का सौदा कर रहे होते है। समाज में रोग व्याधि बढ़ने का आमंत्रण अनायास मिलता है।



उपभोक्ता बाजारवाद की गिरफ्त में इस बात का भी विचार नहीं कर पा रहा है कि खाने-पीने की वस्तुएं तो सेहत को शिकार बना रही है, सौंदर्य प्रसाधन जो सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के संसाधन बन चुके है, वे भी बीमारी को आमंत्रण दे रहे है। आॅनलाईन से जिस खरीद योजना की पूर्ति मिनटों में हो जाती है, उसमें यह जानने का भी वक्त नहीं है कि भोजन में मिलावट और प्रदूषक का कौन सा तत्व हमनें उदरस्थ करने का तामझाम जुटा लिया। मजे की बात यह है कि नववर्ष जैसे मांगलिक अवसर पर ही हम मिलावटी भोजन, पेय पदार्थों और प्रसाधन सौंदर्य के उत्पादों का सेवन कर प्रफुल्लित होने का स्वांग कर रहे होते है। सवेरे-सवेरे चाय की चुस्कियों का आनंद सभी लेते है, लेकिन वे अंजान है कि चाय कि पत्तियों के अर्क के साथ वे लौह कण भी निगल रहे है जो यदि परिमाण से अधिक हो गये तो उदर रोग होने की गारंटी देते है। पत्तियों को सूखाने के बाद चायपत्ती पर चलाने वाले रोलर से ये कण चाय में छूट जाते है, जो छन्नी द्वारा भी बाहर नहीं किये जा सकते। फलों को पकाने के लिए रसायन कार्बाईड कंपाउन्ड का इस्तेमाल प्रतिबंध के बाद भी धड़ल्ले से किया जा रहा है। प्रतिबंधित केल्शियम कार्बाईड में जब रासायनिक क्रिया होती है तो ऐसे तत्व तैयार होते है जो कैंसर रोग के लिए जमीन तैयार करते है। इसी तरह फल, सब्जी की अच्छी ग्रोथ लेने के लिए लालच में आक्सीटोसिन का उपयोग किया जाता है। इस तरह उत्पादित फल, सब्जी खाने से हृदय रोग, सिर दर्द, बांझपन पनपने के साथ याददाश्त भी क्षीण हो जाती है। चांदी के बर्क को मिठाई की शान माना जाता है। आकर्षक शोकेस में सजी मिठाईयां देखकर मुंह में पानी आ जाता है। लेकिन कोई नहीं जानता कि यह चांदी का बर्क पशु की आंत से बनी शीट पर रखकर कूटने के बाद बनता है। इस प्रक्रिया पर भी प्रतिबंध है, लेकिन प्रक्रिया रूकी नहीं है। दूसरी तरफ चांदी की जगह एल्युमीनियम का उपयोग करना हमारी वणिक बुद्धि में शुमार है। दूध तो भोजन में अमृत तुल्य है। लेकिन हमें नहीं मालूम कि इसमें क्या मटेरियल इस्तेमाल किया जा रहा है। कहीं यूरिया तो कहीं चाक का इस्तेमाल कर दूध बनाया जाता है, जो केवल स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद ही नहीं होता अपितु संक्रमित होने से कई विकृतियों को जन्म देता है। लेकिन हम विज्ञापन पढ़ने के बाद उपयोग कर रहे दूध को कामधेनु उत्पाद मानकर मंुह मांगा दाम चुकाते और बीमारी खरीद रहे होते है।



आर्गेनिक फूड एक सुरक्षित विकल्प होता है, लेकिन इस मंहगाई के दौर में आॅर्गेनिक फूड तक पहुंच पाना आम आदमी के लिए दिवा स्वप्न बन गया है। फिर हमारे हाट में शुद्धता, प्रामाणिकता मानव उपकार की वस्तु नहीं दाम बढ़ाने की पक्रिया में गिनी जाने लगी है। उपभोक्ता फोरम में कई मामले आते रहते है, लेकिन न तो इस प्रक्रिया में कहीं वास्तविक रोक लगी है और न ही इसके विरूद्ध कार्यवाही कोई निश्चित अंजाम तक पहंुची है। बाजारों में विज्ञापनों में महानायक की तकरीर को ही शुद्धता ओर स्वास्थ्य की कसौटी मानकर हम ठगे जाने को बेताब है। खाद्य पेय पदार्थों में खतरे जुटाना हमारी तरकीब बन चुकी है। इसी कारण अब भारत में कुपोषण सिर्फ गरीबों तक सीमित नहीं रहा है। भारत की गिनती दुनिया के सबसे कुपोषण ग्रस्त देशों में करने में हमने सारी शक्ति झौंक दी है। खेत-खलिहान से लेकर बाजार तक पहुंचानें में खाद्य पेय पदार्थों को प्रदूषित, मिलावटी बनानें में सहयोग करने का पूरा चक्र बन चुका है। मानव जीवन के साथ खिलवाड़ इस व्यापार में लगे लोगों का पुनीत कर्मकांड बन जाना वास्तव में राष्ट्रीय चेतना का मृत प्राय हो जाना है। इसमें कानून का लाचार होना, प्रवर्तन तंत्र का लालची होना और उपभोक्ता जागरूकता के अभाव में इस मिलीभगत के प्रति तदर्थवाद की प्रवृत्ति भी कम दोषी नहीं है। कभी-कभी और कहीं-कहीं जब ग्वाले की केन में से अतिरिक्त दूध खरीद लिया जाता है तो ग्वाला शरमाये बगैर ही उतना पानी उपभोक्ता के नल से भरकर अपनी केन में उड़ेल लेता है। उसे से तो बस कमाई से मतलब है। दूसरे के स्वास्थ्य का क्या होगा यह चेतना आजादी के बाद तो कमोवेश हमारी तासीर से जा चुकी है। कहने की बात तो यह है कि मिलावट की रोकथाम में सरकार की जिम्मेदारी है। उपभोक्ता मंच की भूमिका कम नहीं है, लेकिन जो कंपनियां प्रतिष्ठान है उनकी भी गंभीर जिम्मेदारी है। उपभोक्ता की सेहत का सौदा कर ये प्रतिष्ठान समाज में प्रतिष्ठा भी पाते है और दसवीर की सूची में अपना नाम दर्ज कराते है। अन्यथा क्या कारण है कि चंद दिनों में इनका एम्पायर खड़ा हो जाता है और राजनेता इनके इर्द-गिर्द मंडराने लगते है।



मानव जीवन के प्रति संवेदना का घोर अभाव परिलक्षित हो रहा है। इससे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि मानक ब्यूरों भी खाद्य पदार्थों, उनके कंटेनरों और बोतलों में विषैले रसायनों के प्रति सचेत नहीं है। हमारा जीवन प्लास्टिक युग में प्रवेश तो कर गया है लेकिन प्लास्टिक की गुणवत्ता और प्रामाणिकता के बारें में मानक ब्यूरों, उपभोक्ता मंच और जनता बेपरवाही का सबूत दे रही है। भारतीय सादे मिजाज के होने के कारण खाद्य पेय, सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली कंपनियों को उनके दायित्वों के प्रति विवश करने मंे अपने को समर्थ नहीं पाते। सिर्फ यह शिकायत करते है कि वे बीमारी से विकृति से ग्रस्त हो रहे है, जबकि उनका खान-पान स्तर का है। लेकिन वे इस बात को जानने की जेहमत नहीं उठाते कि पता लगाये कि उनके उपयोग में आ रहे उत्पाद शैम्पू, क्रीम, पाउडर, डियोडरेंट गुणवत्ता विहीन और नकली तो नहीं है। विज्ञापन बाजी देकर चकाचैंध में हम झूठी प्रतिष्ठा, झूठी शान में स्तरहीन, नकली उत्पादों का सेवन कर खुद रोग व्याधियों को निमंत्रण दे रहे है। उपभोक्ता मंचों की उपयोगिता पर यह एक प्रश्नचिन्ह है।

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