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विवाह का दीया यूं ही जलता रहे

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Place: Bhopal                                                👤By: PDD                                                                Views: 20777

विवाह दो महिला-पुरुष के कानूनी, सामाजिक और धार्मिक रूप से एक साथ रहने को मान्यता प्रदान करता है। विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रथा एवं समाजशास्त्रीय संस्था है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई- परिवार-का मूल है। देश और दुनिया में विवाह का प्रचलन सर्वत्र विभिन्न शक्लों में देखने को मिलता है, इसकी परम्परा अति प्राचीन है, हमारी जीवनशैली का अभिन्न अंग है। यही कारण है कि सम्पूर्ण दुनिया में फरवरी के दूसरे रविवार को विश्व विवाह दिवस के रूप में मनाया जाता है और पति-पत्नी के आपसी संबंधों को नयी ताजगी एवं सुदृढ़ता देने का प्रयास किया जाता है। पति-पत्नी के रिश्तों में रस भरा रहे, इसके लिये इस दिन को उत्सवमय बनाकर उसमें प्यार, प्रणय एवं सौहार्द भरने का प्राणवान संकल्प लिया जाता है। पति-पत्नी की जिन्दगी जब सारी खुशियां स्वयं में समेटकर प्रस्तुति का बहाना मांगती है तब विवाह दिवस जैसा अवसर उपस्थित होता है। यह दिवस संस्कार और संस्कृति का संवाहक है। वैवाहिक रिश्तों का संबोध पर्व है। मानवीय मन का व्याख्या-सूत्र है। बाहरी और भीतरी चेतना का संवाद है। यह दिवस दिशा और दर्शन लेने का अवसर है। संकल्प से भाग्य और पुरुषार्थ का रचने का अवसर है।



विवाह परिवाररूपी संस्था का आधार है। प्राचीन एवं मध्यकाल के धर्मशास्त्री तथा वर्तमान युग के समाजशास्त्री, समाज द्वारा अनुमोदित, परिवार की स्थापना करनेवाली किसी भी पद्धति को विवाह मानते हैं। ?विवाह? शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। इसका पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है जिससे पति-पत्नी के स्थायी-संबंध का निर्माण होता है। रघुनंदन के मतानुसार उस विधि को विवाह कहते हैं जिससे कोई स्त्री (किसी की) पत्नी बनती है। वैस्टरमार्क ने इसे एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ ऐसा संबंध बताया है, जो इस संबंध को करने वाले दोनों पक्षों को तथा उनकी संतान को कुछ अधिकार एवं कर्तव्य प्रदान करता है। मनुस्मृति के अनुसार विवाह एक निश्चित पद्धति से किया जाने वाला, अनेक विधियों से संपन्न होने वाला तथा कन्या को पत्नी बनाने वाला संस्कार है।

विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जानेवाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन भी होता है। इस संबंध से पति-पत्नी को अनेक प्रकार के अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर समाज पति-पत्नी को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहाँ दूसरी ओर पति को पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है।



हिन्दुस्तान की संस्कृति में विवाह को ?पाणिग्रहण? की संज्ञा दी गई है। विवाह संस्कार के पीछे मानसिकता यह थी कि जिसका हाथ एक बार पकड़ लिया उसका साथ आजीवन नहीं छोड़ना। दुनिया के लिये भारत का विवाह आदर्श इसलिये माना गया है क्योंकि हमारे यहां विवाह प्रकाश का दूसरा नाम है। समस्याओं से मुक्ति एवं अंधेरों में उजालों के लिये विवाह के बंधन में बंधकर जीवन को रोशन किया जाता है। यही विवाह की सार्थक यात्रा का सारांश है। हमारे यहां दाम्पत्य का सुख मिलकर भोगा जाता हैं तो उसमें आने वाली परेशानियों को भी मिलकर ही निपटाया जाता है। साथी से प्यार करते हैं, तो उसके काम से भी प्यार किया जाता है।



मानव-समाज में विवाह की संस्था के प्रादुर्भाव के बारे में अनेक तरह की बातें प्रचलित है। मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं था, सब नर-नारियों को यथेच्छित कामसुख का अधिकार था। महाभारत में पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को नियोग के लिए प्रेरित करते हुए कहा था कि पुराने जमाने में विवाह की कोई प्रथा न थी, स्त्री पुरुषों को यौन संबंध करने की पूरी स्वतंत्रता थी। कहा जाता है, भारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की। चीन, मिस्र और यूनान के प्राचीन साहित्य में भी कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं। इनके आधार पर लार्ड एवबरी, फिसोन, हाविट, टेलर, स्पेंसर, जिलनकोव लेवस्की, लिय्यर्ट और शुत्र्स आदि पश्चिमी विद्वानों ने विवाह की आदिम दशा कामचार की अवस्था मानी। क्रोपाटकिन व्लाख और व्रफाल्ट ने प्रतिपादित किया कि प्रारंभिक कामचार की दशा के बाद बहुभार्यता (पोलीजिनी) या अनेक पत्नियाँ रखने की प्रथा विकसित हुई और इसके बाद अंत में एक ही नारी के साथ पाणिग्रहण करने का नियम प्रचलित हुआ।



विवाह एवं परिवार दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। स्त्री-पुरुष के यौन-संबंधों से उत्पन्न संतान को सुरक्षित बनाए रखने की चिंता ने इनको जन्म दिया है। यदि पुरुष यौन-संबंध के बाद पृथक् हो जाए, गर्भावस्था में पत्नी की देखभाल न की जाए, संतान उत्पन्न होने पर उसके समर्थ एवं बड़ा होने तक उसका पोषण न किया जाए तो मानव जाति का अवश्यमेव उन्मूलन हो जाएगा। अतः आत्मसंरक्षण की दृष्टि से विवाह और परिवाररूपी संस्था की उत्पत्ति हुई है। यह केवल मानव समाज में ही नहीं, अपितु मनुष्य के पूर्वज समझे जानेवाले गोरिल्ला, चिंपाजी आदि में भी पाई जाती हैं।



वैयक्तिक दृष्टि से विवाह पति-पत्नी की मैत्री और साझेदारी है। दोनों के सुख, विकास और पूर्णता के लिए आवश्यक सेवा, सहयोग, प्रेम और निःस्वार्थ त्याग के अनेक गुणों की शिक्षा वैवाहिक जीवन से मिलती है। नर-नारी की अनेक आकांक्षाएँ विवाह एवं संतान-प्राप्ति द्वारा पूर्ण होती हैं। उन्हें यह संतोष होता है कि उनके न रहने पर भी संतान उनका नाम और कुल की परंपरा अक्षुण्ण रखेगी, उनकी संपत्ति की उत्तराधिकारिणी बनेगी तथा वृद्धावस्था में उनके जीवन का सहारा बनेगी। हिंदू समाज में वैदिक युग से यह विश्वास प्रचलित है कि पत्नी पति का आधा अंश है, पति (पुरुष) तब तक अधूरा रहता है, जब तक वह पत्नी (स्त्री) प्राप्त करके संतान नहीं उत्पन्न कर लेता। पुरुष प्रकृति के बिना और शिव शक्ति के बिना अधूरा माना गया है।



विवाह एक धार्मिक संबंध भी है। प्राचीन यूनान, रोम, भारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक बंधन एवं कर्तव्य समझा जाता था। वैदिक युग में यज्ञ करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य था, किंतु यज्ञ पत्नी के बिना पूर्ण नहीं हो सकता, अतः विवाह सबके लिए धार्मिक दृष्टि से आवश्यक था। पत्नी शब्द का अर्थ ही यज्ञ में साथ बैठने वाली स्त्री है। श्रीराम का अश्वमेध यज्ञ पत्नी के बिना पूरा नहीं हो सका था, इसलिये उन्हें सीता की प्रतिमा स्थापित करनी पड़ी।



आज विवाह संस्था के अस्तित्व एवं अस्मिता पर खतरे के बादल मंडरा रहे है। पति-पत्नी के सुदृढ़ रिश्ते बिखरने के कगार पर खड़े हैं। अब एक ऐसी संस्कृति पनप रही है कि थोड़ी-सी अनबन हुई, विचारों में टकराहट हुई, ईगो पर जरा सी चोट लगी कि बात तलाक तक पहुंचते देर नहीं लगती। जीवन भर के साथ को तिनके की तरह तोड़ना आज सभ्य समाज में गुड्डे-गुड्डियों का खेल बन गया है। हमारे अपने समाज में दिनोंदिन बढ़ते तलाक के आंकड़े हमारे स्वस्थ परिवारों के उजले सपनों पर कालिख पोत रहे हैं।



विकास का मूल्य कभी पतन नहीं हो सकता। अपने कैरियर और भविष्य के निर्माण के लिए दाम्पत्य को दांव पर लगाना महंगा पड़ सकता है। पति-पत्नी के उजड़ते हुए कुनबों का कारण चाहे उनका कैरियर के प्रति अधिक रुझान हो, चाहे उनके व्यवहार, आदतें और स्वभाव की शिकायतें एक-दूसरे से हो, स्वयं उसका विश्लेषण कर हल ढूंढना होगा। क्योंकि बेबस और लाचार होकर घर छोड़ देना शिक्षित और सुसंस्कृत औरत की नियति कदापि नहीं हो सकती। अपने सपनों को, अपनी अपेक्षाओं को, अपनी चाहतों को यदि आप यथार्थ के धरातल पर उतारकर लायेंगे तो आप पायेंगे कि वैवाहिक जीवन समझौते का ही दूसरा नाम है।



आने वाले समय में विवाह के लोप की भविष्यवाणी करनेवालों की भी कमी नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस समय विवाह के परंपरागत स्वरूपों में कई कारणों से बड़े परिवर्तन आ रहे हैं। विवाह को धार्मिक बंधन के स्थान पर कानूनी बंधन तथा पति-पत्नी का निजी मामला मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। औद्योगिक क्रांति और शिक्षा के प्रसार से स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बन रही हैं। पहले उनके सुखमय जीवनयापन का एकमात्र साधन विवाह था, अब ऐसी स्थिति नहीं रही। विवाह और तलाक के नवीन कानून दांपत्य अधिकारों में नरनारी के अधिकारों को समान बना रहे हैं। धर्म के प्रति आस्था में शिथिलता और गर्भनिरोध के साधनों के आविष्कार ने विवाह विषयक पुरानी मान्यताओं को, प्राचीन नारी की सतीत्व और पवित्रता की छवि को गहरा धक्का पहुंचाया है। किंतु ये सब परिवर्तन होते हुए भी भविष्य में विवाहप्रथा के बने रहने का प्रबल कारण यह है कि इससे कुछ ऐसे प्रयोजन पूरे होते हैं, जो किसी अन्य साधन या संस्था से नहीं हो सकते। पहला प्रयोजन वंशवृद्धि का है। यद्यपि विज्ञान ने कृत्रिम गर्भाधान का आविष्कार किया है किंतु कृत्रिम रूप से शिशुओं का प्रयोगशालाओं में उत्पादन और विकास संभव प्रतीत नहीं होता। दूसरा प्रयोजन संतान का पालन है, क्रेच और ऐसे अनेक आधुनिक साधनों का कितना ही विकास कर ले, उनमें इनके सर्वांगीण समुचित विकास की वैसी व्यवस्था संभव नहीं, जैसी विवाह एवं परिवार की संस्था में होती है। तीसरा प्रयोजन सच्चे दांपत्य प्रेम और सुख प्राप्ति का है। यह भी विवाह के अतिरिक्त किसी अन्य साधन से संभव नहीं। इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए भविष्य में विवाह एक महत्वपूर्ण संस्था बनी रहेगी, भले ही उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन होते रहें। विश्व विवाह दिवस मनाने की सार्थकता तभी है जब हम विवाह एवं परिवार की परम्परा एवं प्रचलन को सशक्त बनाये।





प्रेषकः

- ललित गर्ग

दिल्ली

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