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राष्ट्रपत्नी कहा था, कांग्रेसी ने ! आज आदर उमड़ा राहुल का ?

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Place: भोपाल                                                👤By: prativad                                                                Views: 3708

के. विक्रम राव Twitter ID: Kvikram Rao

नए संसद भवन के प्रस्तावित उद्घाटन (28 मई 2023) पर कांग्रेसी विवाद से जुड़े मेरे कल के (22 मई 2023) पोस्ट पर कई प्रतिक्रियाएं मिलीं। एक सर्वाधिक दिलचस्प थी, रोषयुक्त भी। मुद्दा यह है कि आज चंद लोगों ने राष्ट्रपति, न कि प्रधानमंत्री, के हाथों समारोह आयोजित होने पर राय व्यक्त की है। प्रधानमंत्री के पक्षधर ने पूछा : "बड़ा लाड अब टपक रहा है एक महिला आदिवासी राष्ट्रपति पर ?" इसी निरीह, विधवा जनजातिवाली मास्टरनी द्रौपदी मुर्मु का जमकर, खुलकर विरोध किया था सोनिया-कांग्रेस से मार्क्सवादी कम्युनिस्टों तक ने। गत वर्ष राष्ट्रपति चुनाव में उनके प्रत्याशी थे रिटायर्ड IAS, झारखंड के व्यापारी, कई दल बदल चुके, यशवंत सिन्हा। इस नौकरशाह का दृढ़ प्रण था कि वे रबड़वाली मोहर नहीं रहेंगे। खैर उसकी नौबत ही जनप्रतिनिधियों ने नहीं आने दी। सिन्हा बुरी तरह पराजित हो गए थे।
मगर द्रौपदी मुर्मू पर कांग्रेसी बड़े निर्दयी रहे। अब, इसी कांग्रेसी पार्टी के ठेठ दलित मुखिया मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी कहा कि द्रौपदी मुर्मू, न कि नरेंद्र मोदी, नए संसद भवन का उद्घाटन करें। इसी आवाज को बुलंद करते कांग्रेसी नेता आनंद शर्मा ने भी राष्ट्रपति को निमंत्रित करने का अनुरोध किया। सर्वप्रथम राहुल गांधी ने ही प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन का विरोध किया था। द्रौपदी मुर्मू का नाम सुझाया था।
अब जान लें इस प्रथम आदिवासी महिला राष्ट्रपति पर वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की राय कैसी रही ? मतदान (18 जुलाई 2022) के समय इन्हीं लोगों ने शंका व्यक्त की थी कि यह गरीब नारी भाजपा की रबड़ स्टाम्प बनकर रहेगी। संसदीय कांग्रेस प्रतिपक्ष के नेता, बंगालवाले, अधीर रंजन चौधरी ने बड़ी बेहूदगी से इस निरीह महिला को "राष्ट्रपत्नी" कहा था। हरजाई का पर्याय बना दिया। दलित नेता उदित राज, जो कई पार्टियां बदल चुके हैं, ने कहा था (ट्वीट करते हुए) कि "द्रौपदी मुर्मू जैसा राष्ट्रपति किसी देश को न मिले। यह चमचागिरी की भी हद है।" इस पर राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) ने उन्हें नोटिस दिया है।
ये सभी कांग्रेसी अपने पूर्व अध्यक्ष, कोर्ट द्वारा अयोग्य करार दिये गए लोकसभाई, राहुल गांधी की बात को ही दुहरा दे रहे हैं कि : "द्रोपदी मुर्मू ही नये संसद भवन का उद्घाटन करें। मोदी नहीं।" ये कांग्रेसी जितनी भी देशभक्ति का दावा करें, इनके यूरेशियन नेता राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा तथा अन्य को याद दिला दूं कि उनके पूर्वज जवाहरलाल नेहरू ने अमरीकी राजदूत प्रो. जॉन केनेथ गेल्ब्रेइथ से क्या कहा था। नेहरू ने बताया था : "भारत पर शासन करनेवाला मैं अंतिम अंग्रेज हूं।" (लेखक स्टेनली वालपोल की पुस्तक "नेहरू : ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी।" पृष्ठ 379, प्रकाशक : ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय)। अतः ऐसी ब्रिटिश सत्ता की मानसिकता वाले वंशज इस भारतीय आदिवासी अश्वेत महिला राष्ट्रपति को कैसे गवारा कर सकते हैं ? मगर सियासत की लाचारियां हैं जिनका इस्तेमाल कर राष्ट्रपति को भी अब चुनावी मोहरा बनाने में राहुल गांधी नहीं हिचकिचा रहें हैं।
इस विवाद के संदर्भ को बेहतर समझने के लिए भारतीय गणतंत्र की शैशवास्था के प्रसंगों पर गौर करें ताकि वे त्रुटियां फिर आज के संवैधानिक स्थितियों को न ग्रसें। यह वाकया है नवस्वाधीन भारतीय गणतंत्र के प्रारंभिक वर्षों का। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के आपसी रिश्ते तथा व्यवहार के नियम तब निर्धारित नहीं हुए थे। उसी दौर में राष्ट्रीय विधि संस्था (सर्वोच्च न्यायालय के सामने वाले भवन में) राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को भाषण होने वाला था। विषय था : "राष्ट्रपति बनाम प्रधानमंत्री की शक्तियां।" संपादक दुर्गादास की आत्मकथा के अनुसार नेहरु खुद सुबह ही सभा स्थल पहुंच गये तथा राष्ट्रपति के भाषण की सारी प्रतियां जला दीं। राष्ट्रपति के निजी सचिव बाल्मीकि बाबू बमुश्किल केवल एक प्रति ही बचा पाये। ऐसा माजरा था आजाद हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री के व्यवहार का ! अमेरिकी राष्ट्रपति जनरल आइजनहोवर ने राजेन बाबू को "ईश्वर का नेक आदमी" बताया था। उन्हें अमेरिका आमंत्रित भी किया था। विदेश मंत्रालय ने आमंत्रण को निरस्त करवा दिया। विदेश मंत्री ने कारण बताया कि अवसर अभी उपयुक्त नहीं है। (दुर्गादास : "इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एण्ड आफ्टर" : पृष्ठ?331.339, अनुच्छेद 13, शीर्षक राष्ट्रपति बनाम प्रधानमंत्री)।
जब सरदार पटेल ने सौराष्ट्र में पुनर्निर्मित सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह पर 1949 में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को आमंत्रित किया था तो नेहरु ने कहा : "सेक्युलर राष्ट्र के प्रथम नागरिक के नाते आपको धर्म से दूर रहना चाहिये।" पर राजेन बाबू गुजरात गये। सरदार पटेल ने राजेन बाबू को तर्क दिया था कि "जब?जब भारत मुक्त हुआ है, तब?तब सोमनाथ मंदिर का दोबारा निर्माण हुआ है। यह राष्ट्र के गौरव और विजय का प्रतीक है।" अब एक दृश्य इस प्रथम राष्ट्रपति की सादगी का। "राजेन बाबू", इसी नाम से पुकारे जाते थे वे। तब वकील राजेन्द्र प्रसाद अपना गमछा तक नहीं धोते थे। सफर पर नौकर लेकर चलते थे। चम्पारण सत्याग्रह पर बापू का संग मिला तो दोनों लतें बदल गयी। धोती खुद धोने लगे (राष्ट्रपति भवन में भी)। घुटने तक पहनी धोती उनका प्रतीक बन गयी। आजकल तो रिटायर राष्ट्रपति को आलीशान विशाल बंगला मिलता है। मगर राजेन बाबू सीलन में सदाकत आश्रम (कांग्रेस आफिस, पटना) में रहे। दमे की बीमारी थी। मृत्यु भी श्वास के रोग से हुयी। जब उनका निधन हुआ (28 फरवरी 1963) तो उनके अंतिम संस्कार में जवाहरलाल नहीं गये। बल्कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन से आग्रह किया था कि वे भी न जायें। डा. राधाकृष्णन ने जवाब में लिखा (पत्र उपलब्ध है) कि : "मैं तो जा ही रहा हूं। तुम्हें भी शामिल होना चाहिये।" नेहरु नहीं गये। बल्कि अल्प सूचना पर अपना जयपुर का दौरा लगवा लिया। वहां सम्पूर्णानन्द (यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री) राज्यपाल थे। राजेन बाबू के साथी और सहधर्मी रहे। वे भी नहीं जा पाये। उन्होंने प्रधानमंत्री से दौरा टालने की प्रार्थना की थी। पर नेहरु जयपुर गये। राज्यपाल को एयरपोर्ट पर अगवानी की ड्यूटी बजानी पड़ी। खुद जीते जी अपने को भारत रत्न प्रधानमंत्री नेहरु ने दे डाला। प्रथम राष्ट्रपति को पद से हटने के बाद दिया गया। क्या यह सही था ?

K Vikram Rao
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